साकेत: कैकेयी का पश्चाताप – मैथिली शरण गुप्त

साकेत: कैकेयी का पश्चाताप – मैथिली शरण गुप्त

Some times a person commits such a blunder that he / she is forced to repent for the rest of the life. Kaikayi, the darling youngest wife of Dashratha did one such blunder when she forced the king to give the kingdom to her son Bharat and banish the elder stepson Ram to live in forests for 14 years. Dashratha died from this shock, and Bharat who loved the elder brother Ram too much, was outraged and indignant on this act of his mother Kaikayi. We can imagine the mental state of Kaikayi. In the previous excerpt from Saket, Bharat and Kaikayi along with many others from Ayodhya visit Ram in the forest. After completing the last rites of Dashratha, as the night fell, everyone gathered in an assembly where Bharat expressed his deep anguish at the turn of events and his boundless love for the elder brother. Repentant Kaikayi quiet till now, speaks out at this juncture and the present excerpt (from Saket Mahakavya by Rashtra Kavi Maithili Sharan Gupt Ji) tells what she feels and wants.  – Rajiv Krishna Saxena

साकेत: कैकेयी का पश्चाताप

“यह सच है तो अब लौट चलो तुम घर को।”
चौंके सब सुनकर अटल कैकेयी स्वर को।
बैठी थी अचल तदापि असंख्यतरंगा,
वह सिन्हनी अब थी हहा गोमुखी गंगा।

“हाँ, जनकर भी मैंने न भरत को जाना,
सब सुनलें तुमने स्वयम अभी यह माना।
यह सच है तो घर लौट चलो तुम भैय्या,
अपराधिन मैं हूँ तात्, तुम्हारी मैय्या।”

“यदि मैं उकसाई गयी भरत से होऊं,
तो पति समान ही स्वयं पुत्र मैं खोऊँ।
ठहरो, मत रोको मुझे, कहूँ सो सुन लो,
पाओ यदि उसमे सार, उसे सब चुन लो।

करके पहाड़ सा पाप मौन रह जाऊं?
राई भर भी अनुताप न करने पाऊं?”
उल्का-सी रानी दिशा दीप्त करती थी,
सबमे भय, विस्मय और खेद भरती थी।

 

“क्या कर सकती थी मरी मंथरा दासी,
मेरा मन ही रह सका ना निज विश्वासी।
जल पंजर-गत अब अधीर, अभागे,
ये ज्वलित भाव थे स्वयं तुझे में जागे।

थूके, मुझपर त्रैलोक्य, भले ही थूके,
जो कोई जो कह सके, कहे क्यूँ चुके?
छीने न मातृपद भरत का मुझसे,
हे राम, दुहाई करूँ और क्या तुझसे?

युग योग तक चलती रहे कठोर कहानी-
‘रघुकुल में भी थी एक अभागिन रानी।’
निज जन्म-जन्म में सुने जीव यह मेरा-
‘धिक्कार, उसे था महा स्वार्थ ने घेरा’।”

“सह सकती हूँ चिरनरक, सुनें सुविचारी,
पर मुझे स्वर्ग की दया, दंड से भारी।
लेकर अपना यह कुलिश कठोर कलेजा,
मैंने इसके ही लिए तुम्हे नरक भेजा।

घर चलो इसी के लिए, न रूठो अब यों,
कुछ और कहूँ तो उसे सुनेंगे सब क्यों?
मुझको यह प्यारा और इसे तुम प्यारे,
मेरे दुगने प्रिये, रहो न मुझसे न्यारे।

 

तुम भ्राताओं का प्रेम परस्पर जैसा,
यदि वह सब पर प्रगट हुआ है वैसा,
तो पाप-दोष भी पुण्य-तोष है मेरा,
मैं रहूँ पंकिला, पद्म-कोष है मेरा।

छल किया भाग्य ने मुझसे अयाश देने का,
बल दिया उसीने भूल मान लेने का।
अब कटी सभी वह पपाश नाश के प्रेरे
मैं वही कैकयी, वाही राम तुम मेरे।

जीवन नाटक का अंत कठिन है मेरा,
प्रस्ताव मात्र में ही जहाँ अधैर्य अँधेरा।
अनुशासन ही था मुझे अभी तक आता,
करती है तुमसे विनय, आज यह माता-

हो तुम्ही भरत के राज्य, स्वराज्य संभालो,
मैं पाल सकी न स्वयं धर्म, उसे तुम पालो,
स्वामी के जीते-जी न दे सकी सुख मैं,
मरकर तो उनको दिखा सकूँ यह मुख मैं।”

∼ मैथिली शरण गुप्त (राष्ट्र कवि)

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5 comments

  1. Lovely… nothing like old gold

  2. Every stanzas should be thr with their meanings…..so tht people cud not only read but understands

  3. पांचवी पंक्ति में हाँ जानकार के स्थान पर हाँ जनकर होना चाहिए …

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