क्या होगा हिन्दी का – राजीव कृष्ण सक्सेना

Even though Hindi was declared as the National language, after independence it has progressively lost ground to English, especially amongst urban and more educated Indians. Today, we see that while the simple conversational Hindi liberally adulterated with English words is gaining ground, pure and literary Hindi is slowly getting lost. There are severe implications of this loss on the future of Indian culture as we know it. This issue is too serious to be brushed under the carpet, and lip service alone would not help. Please read this article and see what is at stake – Rajiv Krishna Saxena

क्या होगा हिन्दी का

उस दिन एक मित्र के घर जाना हुआ। वहां उनका पुत्र किसी से फोन पर बात कर रहा था। अचानक फोन पर बात करते हुए उस ने रुक कर अपने पिता से पूछा पापा पैंतालिस कितना होता है। कोई दुकानदार उसे फोन पर किसी वस्तु के दाम बता रहा था जो कि उसे समझ नहीं आ रहा था। पिता ने बताया पैंतालिस का मतलब फोर्टी फाइव और पुत्र यह जान कर पुनः फोन पर व्यस्त हो गया। अचानक मुझे लगा क्या हो रहा है हिंदी का। आजकल की पीढ़ी हिंदी में गिनती तक नहीं जानती। किसी भी छोटे बच्चे से रंगों के नाम पूछिये तो वह रैड और यैलो बताएगा लाल और पीला नहीं।ऊपर से कुछ लोग कहते हैं  कि हिंदी का और सरलीकरण होना चाहिये क्योंकि कठिन हिंदी लोग नहीं समझते। मुझे तो यह समझ नहीं आता कि पहले कैसे समझ लेते थे। मैं जब पचास और साठ के  दशक में स्कूल में था तो हिंदी में गिनती कोई समस्या नहीं थी।हम लोग पुस्तकालय में जा कर हिंदी के उपन्यास कहानियां इत्यादी लाते थे और फटाफट पढ़ डालते थे। आजकल विरला ही कोई विद्यार्थी हागा जो पाठ्यक्रम से बाहर कुछ भी हिंदी में पढ़ता हो।जब कि अंग्रेजी के नावल धड़ल्ले से पढ़े जाते हैं। हिंदी का स्तर लगातार गिरता जारहा है। इसमे शक नहीं कि व्यवहारिक हिंदी अभी भी बहुत लोकप्रिय है। हिंदी अखबार अंग्रेजी अखबारों से दस गुना ज्यादा बिकते हैं और हिंदी टीवी चैनल्स के दर्शक अंग्रेजी चैनलों की अपेक्षा बहुत ज्यादा हैं। पर समस्या यह है कि कामचलाऊ हिंदी तो बढ़ रही है लेकिन  उच्च कोटि की हिंदी के पाठक कम हो रहे हैं। यह न केवल हिंदी सहित्य के लिये खतरे की घंटी है पर हमारे राष्ट्र के बौद्धिक भविष्य के लिये भी एक बेहद चिंता का बिषय है। इसको समझना बहुत आवश्यक है। आइये इसे कुछ और समझने का प्रयास करें।

किसी भी भाषा का प्रयोजन क्या होता है। मुझे सातवीं कक्षा में पढ़ी भाषा की परिभाषा अभी भी याद है –  “भाषा वह माध्यम है जिसके द्वारा हम अपने विचारों का आदान प्रदान करते हैं”। भाषा के ही माध्यम से हम मानव जाति की समस्त जानकारियों अनुभवों चिंतन और इतिहास को अपनी अगली पीढ़ियो के लिये लिखित रूप में छोड़ जाते हैं। अब यह देखें कि वह विचार क्या हैं जिनका आदान प्रदान हम अपने जीवन में करना चाहते हैं। किसी जंगल में रहने वाले आदिवासी या दूर दराज के गांव में  रहने वाले किसान के विचार सरल और सीधे साधे हो सकते हैं। रोजाना की आवश्यक्ता की वस्तुओं को मांगना‚ परिवार के सदस्यों और मित्रों से बातचीत और बच्चों को आदेश इत्यादी। अनुमान लगाया गया है कि ऐसे साधारण एवं सरल जीवन में बहुत कम शब्दों से काम चल सकता है। कई ऐसे समाज भी हैं जिनके सदस्य अपने पूरे जीवन में मात्र तीन चार सौ शब्दों का ही प्रयोग करते हैं। वैसे देखा जाए तो भाषा जीवन की मूल भूत आवश्यक्ताओं के लिये कोई खास जरूरी नहीं है। भाषा के विकास से पहले भी मानव जीवन था और जानवर बिना विकसित भाषा के भी अपना जीवन बिता ही लेते हैं। तो फिर प्रश्न उठता है कि सहित्यिक हिंदी जानने की आवश्यक्ता क्यों है? हम सरल हिंदी से काम क्यों नही चला सकते?

भाषा मानव के विकसित मस्तिष्क से उपजी है और दोनो ही अपनी विकास गतियों को कायम रखने के लिये एक दूसरे पर निर्भर हैं। इसका कुछ खुलासा आवश्यक है। ज्यों ज्यों मस्तिष्क का विकास हुआ भाषा की जटिलता बढ़ी और ज्यों ज्यों भाषा का विकास हुआ और नये नये शब्द बने मानव चिंतन को विकास के नये सोपान मिले। ध्यान देने की बात है कि हम उच्चकोटि का चिंतन भाषा में ही करते हैं। उदाहरण के तौर पर अगर ब्रह्म‚ अणु‚ आत्मा‚ प्रकृति  इत्यादि शब्द न हों तो हम इनके बारे में सोच भी नहीं सकते। विज्ञान के विकास के दौरान हजारो लाखो नए शब्द बने और इन्हें जाने बिना हम विज्ञान का चिंतन नहीं कर सकते। इसी तरह अन्य चिंतन क्षेत्रों में अपनी आबश्यकता अनुसार नये नये शब्द बनते रहे हैं और बनते रहेंगे। सरल भाषा में मात्र सरल और सीधी साधी बातों का चिंतन हो सकता है पर विकसित और सूक्ष्म चिंतन एक ऐसी विकसित भाषा में ही संभव है जिसमे चिंतन के लिय आवश्यक शब्द हों क्यों कि शब्द ही वह सीढ़ी हैं जिन पर चढ़ते हुए चिंतन की उंचाई तक पहुंचा जा सकता है। इस मूल भूत सत्य को दृष्टि में रखते हुए जरा अंग्रेजी और हिंदी भाषाओं की क्षमता की तुलन करें।

परिष्कृत हिंदी अथवा खड़ी बोली एक अपेक्षाकृत नवीन भाषा है और एक दो शताब्दी से अधिक पुरानी नहीं है जब कि इसकी पूर्वज बृज‚अवधी इत्यादि अन्य भाषाएं कहीं अधिक पुरानी हैं। हिंदी की मां संस्कृत अत्यंत प्राचीन और समृद्ध भाषा है और भारतीय संस्कृति का प्राचीन आध्यात्मिक एवं सामाजिक चिंतन मूलतः संस्कृत में ही हुआ है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि संस्कृत आज प्रचलित नहीं है और हिंदी में संस्कृत वाली क्षमता अभी तक विकसित नहीं हुई है। हिंदी में जटिल चिंतन की क्षमता का विकास हो इससे पहले ही हमने ऐतिहासिक कारणों से अंग्रेजी को भी अपना लिया। हिंदी के मुकाबले अंग्रेजी एक पुरानी शक्तिशाली और समृद्ध भाषा है। विज्ञान का विकास अधिकतर अंग्रेजी भाषा में ही हुआ है और हिंदी वैज्ञानिक शब्दावली में बहुत कमजोर है। फिर भी पिछली शताब्दी के पूर्वाध में हिंदी में कमाल का सहित्य लिखा गया। अधिकतर जाने माने और लोकप्रिय हिंदी कवि और उपन्यासकार उसी समय के हैं।विडंबना तो यह है कि भारत की आजादी प्राप्ति के साथ साथ हिंदी का स्तर गिरना आरंभ हो गया। हमने अंग्रेजी को अधिकाधिक अपनाया क्योंकि इसके कई लाभ थे । हमे विज्ञान में आगे बढ़ना था विश्व के साथ जुड़ना था। भाषा की राजनीति भी प्रबल थी। अंग्रेजी की शक्तिशाली बैसाखी मिली और इसी आपाधापी में हिंदी पीछे छूटती गई। जो प्रबल ज्योति  जयशंकर प्रसाद.‚ दिनकर‚ महादेवी वर्मा‚ निराला और सुमित्रानंदन पंत जैसे लेखकों से प्रज्ज्वलित हुई थी वह अब क्षीण पड़ती दिखाई देती है।संस्कृत मां के आलंबन से जो नई हिंदी की शब्दावली का विकास हो रहा था वह आज अव्रुद्ध होता दीखता है क्योंकि लोग इसे नहीं समझते। अंग्रेजी मूलतः बलवान थी और समुचित संरक्षण के अभाव में हिंदी की जो दुर्गति होनी थी हो रही है।

अब प्रश्न यह है कि हम करें क्या? क्या अपनी मतृभाषा को हम मात्र कामचलाऊ भाषा का दर्जा दे दें और सब बैद्धिक कामों के लिये अंग्रेजी का प्रयोग करें? हो तो यही रहा है। प्रयोग के अभाव में हिंदी में नवचिंतन नहीं हो पा रहा। जहां चिंतन और सूक्ष्म विचारों की अवश्यकता होती है हम तुरंत अंग्रेजी की बैसाखी थाम लेते हैं। जो कुछ साहसी हिंदी प्रेमी हिंदी में लिखते हैं उनकी शब्दावली आम जनता नहीं समझती। हमे यह जान लेना बहुत आवश्यक है कि कोई भी संस्कृति अपनी भाषा में ही फलती फूलती है। हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति संस्कृत भाषा में फली फूली और दर्शन से आयुर्वेद और काव्य से गणित तक हमारे समस्त चिंतन संस्कृत की गोद में पले और विकसित हुए। भरतीय चिंतन और संस्कृत भाषा एक दूसरे को अधिकाधक शक्तिशाली बनाते  गयें। संस्कृत के जाने से बने खालीपन को हिंदी भर नहीं पा रही क्योंकि हिंदी का विकास अधिक शक्तिशाली अंग्रेजी से अवरुद्ध हो गया है। यह समस्या अत्यंत गंभीर है।अगर समय रहते उपाए न किये गये तो इसके दूरगामी और घातक परिणाम होंगे। हिंदी एवं दूसरी भारतीय भाषाओं का पतन निश्चय ही भारतीय संस्कृति के पतन का कारण बन सकता है। अंग्रेजी कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो उसमें भारतीय संस्कृति नहीं पनप सकती।किसी भी देश की संस्कृति उसकी अपनी भाषा से ही पोषण पा सकती है।  यही हाल रहा तो एक समय ऐसा आयगा जब भारत अपनी संस्कृति भूल कर मात्र अमरीका और इंगलैंड की नकल बन कर उभरेगा। और नकल कभी भी असल से उत्तम नहीं हो सकती। अंग्रेजी अपनाकर और हिंदी को मात्र कामचलाऊ भाषा का दर्जा दे कर हम कभी भी भारतीय मूल चिंतन को जीवित नहीं रख सकते। हमे अपने आप से पूछना होगा कि क्या हम देश के भविष्य को इसी रूप में देखना चाहते हैं? अगर ऐसा हुआ तो यह पूर्ण विश्व के लिये एक एसी विशाल क्षति होगी जिसकी पूर्ति असंभव होगी। भौतिकवाद से ऊब कर जब विश्व आध्यात्म की अमृत बूंदों के लिये तरसेगा और भारत की आत्मा अगर तब तक हिंदी और संस्कृत की अवहेलना के फलस्वरूप दम तोड़ती होगी तब इसका अभाव एक भयानक त्रासदी होगा।

हमे समय  रहते सचेत होना ही होगा। हिंदी का स्तर बढ़ाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है और यह युद्ध स्तर पर होना चाहिये। हिंदी बारहवीं कक्षा तक अनिवार्य होनी चाहिये और पाठ्यक्रम  ऐसा होना चाहिये कि उस समय तक सभी बच्चे हिंदी के श्रेष्ठ सहित्य से पूर्णतः परिचित हों और कथित कठिन हिंदी उन्हें सरल जान पड़े। कुछ ऐसा प्रावधान होना चाहिये कि स्कूल समाप्त करने तक सभी विद्यार्थी हिंदी के विभिन्न स्तरों के मुख्य उपन्यासों में से कम से कम दस उपन्यास और चुनी हुई कविताओं और कविताओं के कुछ संग्रह पढ़ डालें। इससे हिंदी सहित्य पढ़ने की झिझक दूर होगी प्रयोग का अभ्यास होगा। इसके अलावा संस्कृत में उपलब्ध सभी मूल चिंतन ग्रंथ सशक्त हिंदी अनुवादों के रूप में ंं प्राप्य कराना अत्यंत अनिवार्य है  जिससे लोग इनसे अनिभिज्ञ न हो जाएं और धीरे धीरे भरतीय मूल चिंतन का भार हिंदी उठा सके। भारतीयता का भविष्य हिंदी के भविष्य से पूर्णतः जुड़ा हुआ है। भारतीयता को जीवित रखना है तो उच्चकोटि की हिंदी को सबल बनाना होगा जन जन तक पहुंचाना होगा। हिंदी के सरलीकरण की प्रक्रिया एक भयंकर भूल है। यह तो ऐसा है जैसे कि किसी बच्चे को जीवनभर तुतलाने को मजबूर किया  जाए। बतााइये क्या कोई कभी अंग्रेजी के सरलीकरण की बात करता है?  हिंदी के विकास के बिना प्राकृतिक भारतीय जन मानस का विकास भी संभव नहीं है। हिंदी के विकास को अवरुद्ध कर के हम अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मार रहे हैं स्वयं अपने विनाश के बीज बो रहे हैं।  हिंदी का विकास कर उसे उस स्तर तक लाना होगा जहां भाषा और चिंतन की परस्पर भागेदारी से दोनो ही का विकास मार्ग प्रशस्त हो जए। सशक्त हिंदी को उसके उच्च सिंघासन पर बिठाना ही होगा। इसका कोई विकल्प नहीं है।

~राजीव कृष्ण सक्सेना

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