Dr. Veerbala, sister of Dr. Dharamvir Bharati and Dr. Bharati

यादें भईया (डॉ धर्मवीर भारती ) की – डॉ वीरबाला (बहन)

Dr. Dharamveer Bharati (borm 25 Dec 2025) and Dr Veerbala (born 13 Oct 1930) were brother and sister, born in Allahbad (now Pryagraj). Their early years and education were in Allahabad too. Dr. Bharati did PhD in Hindi and started to teach in the Allahabad University. Dr. Veerbala maried Dr. Shatendra Kumar and moved to Delhi in 1948. She did PhD in Sanskrit and started teaching in Vivekanand Mahila College in Delhi University. Dr. Bharati later moved to Mumbai as the Editor of Dharmayug. While Dr. Bharati was a stalwart in Hindi Literature, Dr. Veerbala too was a poetess and novelist. Both of them are no more. Dr Bharati died in the year 1997 and Dr Veerbalain 2008. I write this introduction  as the son of Dr. Veerbala. Amma wrote this article  in the year 2006, recalling the early years of her’s and Bharti Ji in Allahabad. The article provides some information that only a sister can provide. Rajiv Krishna Saxen

यादें भईया (डॉ धर्मवीर भारती ) की – डॉ वीरबाला  (बहन)

तीर्थों में श्रेष्ठ प्रयागराज, और प्रयागराज में श्रेष्ठतम मुनि अत्री  और अनुसूया का आश्रम | उसी आश्रम  का नाम कालांतर में बदलते बदलते अतरसुइया हो गया। यह इलाहबाद का प्राचीनतम मुहल्ला है।आश्रम स्थान की धुंधलाती हुई प्रसिद्धि को किसी पंडा वंश  ने जीवित रखा है। संकरी गलियों में स्थित आश्रम से पहले संकरे चौराहे पर दक्षिण पश्चिम वाले कोने पर पत्थर के चबूतरे वाला एक तिमंजिला मकान है जिसमें हम दोनो भाई बहन, धर्मवीर (1925) और वीरबाला (1930), का जन्म हुआ |

पिता श्री चिरंजीलाल वर्मा सिविल इंजीनियर थे जिन्होंने अंगेजों के शासन काल में बनारस के आसपास सारनाथ  आदि स्थानों का विकास कार्य कराया । किंतु दृढ़  राष्ट्रवादी विचार धारा के कारण अंग्रेज  चीफ इंजीनियर से मतभेद के कारण त्यागपत्र दे दिया । माता श्रीमती चंदा देवी की आार्यसमाज के प्रति जुनून की हद तक कार्यनिष्ठा थी | उन्होंनें वैश्याओं को कोठे से उतार कर उनके विवाह  करवाए और समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाया । आर्यसमाज के आदर्शों पर आधारित आदर्श कन्या पाठशाला नाम से विद्यालय खोला जो अभी भी किसी ट्रस्ट के अन्तर्गत किसी अन्य नाम से कल्याणी देवी मुहल्ले  में चल रहा है ।

भईया धर्मवीर के घर का नाम “बच्चन बाबू था । उनकी आरंभिक  शिक्षा डी ए वी स्कूल में हुई ।फिर कायस्थ पाठशाला से इंटर करके इलाहबाद विश्वविद्यालय से पी एच डी की डिगी प्राप्त की ।वहीं हिंदी विभाग में व्याख्याता के रूप में उनकी नियुक्ति हुई । दस संतानों की मृत्यु के बाद प्राप्त हम दो संतानों को माता पिता नें फूलों की तरह पाला पर भइया की 12 बर्ष की उम्र  में अकस्मात पिता जी की मृत्यु से हम सब का जीवन ऊबड़ खाबड़ पथ पर जा पड़ा। भईया पर पिता की मृत्यु के अवसाद की गहरी छाया मंडरा गई | मैं तो 6 बर्ष की नादान बालिका थी पर वह तो समझदार थे । जैसे तैसे समय गुजरा ही ।

 

इलाहबाद भईया के हृदय की धड़कन था । मुझे गर्व  है कि हमने इलाहबाद और खास तौर से अतरसुइया के मकान नंबर 195 में जनम लिया । बाद में हम लोग अपने ही दूसरे मकान नंबर 199 में आ गए । यहां छत पर भईया  का हवादार कमरा था । भईया  को नीला रंग पसंद था, सो  वह कमरा नीला था,पर्दे भी नीले थे । कमरे के छज्जे के सामने जरा दूर पर खड़ा नीम का पेड़ उस कमरे की गतिविधियों का साक्षी था । डॉ धर्मवीर भारती के रूप में भईया  जितने मुखर थे बचपन में उतने ही शर्मीले  थे । फिर भी उनका मित्रवर्ग काफी बड़ा था | वे सभी मुझे छोटी बहन  मानते थे, सभी मुझे “लल्ली ” कह कर पुकारते थे।

सन 1947 के स्वाधीनता आंदोलन में भईया  ने बहुत उत्साह से भाग लिया। जलूसों में वे झंडा लेकर सबसे आगे चलते थे। उस समय वे  धर्मवीर “भारतीय” होते थे बाद में साहित्य संपर्क में आकर धर्मवीर “भारती” हुए । विद्यार्थी जीवन में ही उन्होंने इलाहबाद से प्रकाशित “अभ्युदय ” का सफल संपादन किया | श्री इला चंद जोशी के संपादन में प्रकाशित “संगम पत्रिका” में उन्होंने सह संपादक के पद  पर काम किया। उनका पहला कहानी संग्रह  “नक्षत्र और पूजा” किशोरावस्था की भावना-प्रवण रचना है । उसके बाद बंगाल के भयंकर दुर्भिक्ष  का प्रतिबिंब “मुर्दों का गांव” कहानी संग्रह है । तेजी से बढ़ते हुए कम्यूनिज्म का उत्तर उन्होंने “प्रगतिवाद एक समीक्षा” द्वारा दिया ।

हमारा घर उस समय के भईया के मित्र कवियों और बुद्धिजीवियों की मिलनस्थली   थी । अत्री मुनि  के कमरे में तत्कालीन कवियों की काव्य गोष्ठियों  में उनकी काव्य ऋचाएं गूंजती थीं। वह युग “परिमल”और “तारसप्तक” का था। उस समय के उभरते लेखकों में एक अनोखा सौहार्दपूर्ण उत्साह था । इस अकविता, विकविता, कविता आदि के युग में मुझे वह समय स्वप्न सा लगता है।. शायद ही कोई तत्कालीन लेखक ऐसा होगा जो उस घर में न आया हो और हमारी मां के हाथ का खाना न खाया हो | कमिल बुल्के  की विशेष छवि मन में है। पादरियों बाला  सफेद चोगा और रसोई के सामने खड़े हो कर अम्मा से बातें करना । कैसा समय था अम्मां सब की मां थीं और मैं सब की छोटी बहिन लल्ली |

 

 

भईया  जब कविता लिखते तो वह  छत पर घूमते हुए उसे इतना गुनगुनाते थे कि वह कविता मुझे भी याद हो जाती थी । उनका गुनगुनाना मेरे कानों में अभी तक गूंजता है

नीला गगन में  उठते घन में , भीग  गया हो ज्यों खंजन
आज न बस में, विह्लल रस में, कुछ ऐसा  बेकाबू मन
क्या जादू कर गया किसी शहजादी  का भोलापन
किसी फ़रिश्ते ने फिर मेरे घर, दर दर आज दिया फेरा
बहुत दिनों के बाद  खिला बेला, महका आँगन  मेरा

उस समय घर पर लगातार होती काव्य  गोष्ठियों में पढ़ी गई कविताओं के अंश अभी भी मुझे याद आते हैं । डॉ जगदीश गुप्ता की पंक्तियां :

उदास मैं नहीं हुआ 
कहां विकास रुक सका, विफल प्रयास  हो गये
तुम्ही  ने राह रोक ली; तुम्ही  उदास  हो गए.
मगर हृदय  अबोघ है, न रोष  है, न क्रोध है.
शिला पिघल चली जहां, जरा सी आंच ने छुआ
उदास मैं नहीं हुआ

पंडित रमानाथ अवस्थी की पंक्तियाँ:

सो  न सका मैं; याद  तुम्हारी  आई सारी रात
और  पास  ही बजी कहीं शहनाई सारी रात
मुझे जगाने को अम्बर में जागे अनगित तारे
लेकिन  बाजी जीत गया मैं, वह सबके सब हारे
जाते जाते चाँद  कह गया मुझसे  बड़े सकारे
तुझे अकेला देख  मौत ललचाई सारी रात
सो  न सका मैं, याद  तुम्हारी  आई सारी रात

 

उन कवि गोष्ठियों की जान शर्मीले  भावुक कविता के स्वर को आंसुओं से भिगोते हुए श्री गिरिधर गोपाल जो भईया के सहपाठी भी थे, को सुनना मानों प्यार के पवित्र संवेदन में खो जाना था ।

ध्यान मुझको तुम्हारा प्रिये  
चाँद और चाँदनी का मिलन देख  आने लगा
रात का बंद  नीला किवाड़ा  खुला
लो क्षितिज छोर पर देव  मंदिर डुला  
हर नगर  को हिला, हर डगर को खिला
हर विपंची जिला, ज्योति प्लावन चला
कट  गया शाप बीती विरह  की अवधि
ज्वार  की सीढ़ियों पर खड़ा  हो जलधि
अंजली अश्रु भर भर किसी यक्ष सा
प्यार के देवता पर चढ़ाने लगा
ध्यान मुझको तुम्हारा प्रिये 
चंद और चाँदनी का मिलन देख  आने लगा

श्री केशव वर्मा, श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्री विपिन अग्रवाल (जो असमय काल कवलित हो गये) श्री विशन टण्डन, जो आई ए एस हो कर विभिन्‍न स्थानों पर नियुक्त होते रहे पर उनका कवि हृदय,जब भी वे इलाहाबाद आते, उन्हें हमारे घर खींच ही लाता | श्री गोपी कृष्ण गोपेश जो भईया  के निकटतम मित्र रहे, उनकी पंक्तियां अभी याद आ रही हैं

तुम्हें  ढूंढते  हुए  गगन में उग आया हैं चाँद
प्रियतम  उग जाया है चाँद  
मेरा क्या हैं मैं मोह  व्यर्थ का
ज्यों माया  है चाँद
किसी की ज्यों छाया है चाँद
गगन में उग जाया है चाँद

 

भईया  के छात्र वर्गीय साथियों में श्री राजनारायण बिसरिया, और छात्रों में श्री राम स्वरूप चतुर्वेदी,श्रीमती सुमित्रा कुमारी सिन्हा के पुत्र श्री अजित कुमार पमुख थे ।

भईया का अतिशय प्रसिद्ध उपन्यास “गुनाहों का देवता” इतनी निष्ठा से लिखा गया कि गर्मी के दिनों में सुबह भागवत का कुछ अंश पढ़ कर शद्धापूर्वक  अगरबत्ती जला  कर वह लिखते थे । जितना वे लिखते थे, श्री गोपेश जी, अम्मा और मुझे रोज सुनाते थे। गुनाहों का देवता उन्होंने ऐसी मनस्थिति में लिखा मानो तीर्थ यात्रा की हो । गुनाहों का देवता, सूरज का सातवां घोड़ा, अंधायुग और कनुप्रिया जैसी कालजयी रचनाओं के रचयिता भईया का मन अतरसुइया की गलियों की संवेदना-प्रवण  भावनाओं से जुड़ा था । गुल  की बन्‍नो, सुधा, चन्दर, साबुन बाली सत्ती ऐसे असली  जीवंत पात्र थे जो आज भी मेरी नजरों के आगे धूमते रहते हैं। माणिक मुल्ला वर्ग के कुछ मित्रों का नाम न लेना अन्याय होगा। त्रिलोकी, पन्ना, कातिक आदि एक मित्र समूह था जो सूरज का सातवां घोड़ा का पात्र समूह भी था ।

उनके जुझारू लेखक में लेखकत्व  का गर्व  नहीं था । वह एक अतरसुइया जैसे पिछाड़े मुहल्ले में  घूमते हुए अर्धग्रामीण  ही थे । छोटी छोटी बातों को चमत्कार की तरह मुझे बताना, नवंबर   में होने वाली इलाहबाद की नुमाइश में मेरे साथ घूमते हुए दुकानों पर रुक रुक कर छोटी छोटी चीजें मुझे खरीद कर देना, अपने छोटे छोटे भांजों को उंगली पकड़ कर नुमाइश में घुमाना | भईया के मन में बहुत प्यार था |

मेरी  शादी दिल्‍ली के डॉ शतेंद्र  कुमार के साध 1948 में हुई और तत्पश्चात मैं दिल्ली  चली  आई । मुझे याद हैं कि भईया  जब दिल्‍ली मुझे लेने आए तो हम कुतुब मीनार देखने गए । भईया  एक सांस में ही कुतुब मीनार की चोटी पर चढ़ गए । उनके मन में एक बाल सुलभ उत्सुकता  रहती और पैर जैसे यायावर थे जो कि रुकना ही  नहीं चाहते थे । इलाहबाद में रहे हुए भईया  की प्रखर लेखनी बाद में बम्बई के धर्मयुग के संपादक की कलम हो गई |भईया  का यह संपादन काल हिंदी साहित्य का स्वणिम  “धर्मयुग काल” कहलाता हैं। उनकी पहली पत्नी श्रीमती कांता भारती थीं जिनकी पुत्री पारमिता भारती हैं । उनकी दूसरी पत्नी श्रीमती पुष्पा  भारती हैं जिनके  पुत्र किंशुक भारती और पुत्री प्रज्ञा भारती हैं । पुत्र किंशुक सपत्नीक  अमरीका में बस गए हैं । दोनों पुत्रियां भारत में ही हैं।

डॉ वीरबाला   (1930-2008)

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