This series of articles are for those readers who would like to get acquainted with the essence of Indian thought and its evolution. Religions that originated in the Indian soil (i.e. Hindu, Jain, Buddha and Sikh etc.) may have small differences but are not too different in their basic principles and stipulations. As a group of religions however, Indian school is quite distinct from the other major group of religions that originated in Middle-East, i.e. Judaism, Christianity and Islam. In the current and the next article, these differences will be examined. Readers may write with feedback and / or questions to rajivksaxena@gmail.com – Rajiv Krishna Saxena
तत्व चिंतनः भाग 2 – भारतीय धर्मों की मूल धारणाएं
पिछले भाग में हमने देखा कि “हिंदू” और “धर्म” शब्दों के विस्तृत अर्थ हैं। तो फिर “हिंदू धर्म” से हम क्या समझें? अगर हिंदू शब्द का अर्थ हम भारतीय उपमहाद्वीप मे रहने वाले लोगों से लें और धर्म मानव मात्र में अन्तर्निहित कर्तव्य को मानें तो हिंदू धर्म का तात्पर्य भारतवासियों की मानव धर्म के बारे में अवधारणा को माना जा सकता है। पर यथार्थ में भारतवासियों की धर्म संबंधी धारणाओं में एकता से अधिक अनेकताएं प्रतीत होती हैं। आप पूछ सकते हैं कि आखिर एक अवधारणा है कहां? यहां हज़ारों देवी देवताओं की पूजा होती है। व्रत और अनुष्ठान अनगिनत हैं। हज़ारों तीर्थ स्थल हैं जहां भक्तों का हुजूम जमा रहता है। कुंभ और पुष्कर के मेले हैं जहां लाखों करोड़ो लोग पहुंचते हैं। सैकड़ो तरह के साधू हैं गुरू हैं योगी हैं। इन सब के ऊपर भारत भूमि में उपजे विभिन्न अन्य धर्म भी हैं जैसे कि अत्यंत प्राचीन जैन विचार धारा लगभग 2600 वर्ष पहले उपजा बुद्ध धर्म कई सौ वर्ष पुराना सिख धर्म और इस्लाम एवम पूर्वी चिंतन धाराओं के संगम से उपजी सूफी विचार धारा। इसके अलावा ब्रह्म समाज और आर्यसमाज आंदोलन इत्यादि। इतनी रंगबिरंगी धार्मिक विविधता विश्व में कहीं और दिखाई नहीं पड़ती। इसका कारण है।
धर्म से जुड़े चिंतन को आध्यात्म कहते हैं और आदि काल से ही आध्यात्मिक चिंतन भारतवासियों के लिये जीवन का सबसे महत्वपूर्ण विषय रहा है। अगर आप वास्तव में भारत को समझना चाहते हैं तो इस मूल सत्य को हृदयंगम करना ही पड़ेगा कि भारत की आत्मा धर्म और दर्शन में बसती है। विवेकानंद इस संबंध में उस दानव की कहानी का उदाहरण देते हैं जिसकी जान एक चिड़िया में होती है और दानव की मृत्यु तभी संभव है जब कि उस चिड़िया को ढूंढ कर उसे मारा दिया जाए। विवेकानंद कहते हैं कि भारतवर्ष के लिये धर्म ही वह चिड़िया है। जब तक धर्म सलामत है भारत वर्ष का नाश नहीं हो सकता। इक़बाल ने अपनी अमर कविता “सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा” में लिखाः
यूनान मिस्र रोमा सब मिट गये जहां से
अब तक मगर है बाकी नामोंनिशां हमारा
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा
यह “कुछ बात” जिसकी हस्ती नहीं मिटती वह धर्म ही है। इस आंतरिक ऊर्जा ने हमारी सभ्यता को अमरता प्रदान की है। धर्म न होता तो यह सभ्यता भी यूनान मिस्र और रोम की भांति कब की दम तोड़ चुकी होती। कुछ पढ़े लिखे पर अज्ञानी देशवासी धर्म की खिल्ली उड़ाते हैं उसे बेकार की वस्तु समझते हैं और इस विचार धारा का कुछ फैशन सा हो गया प्रतीत होता है। पर ध्यान से सोचने विचारने पर यह साफ हो जाता है कि इस महान देश का अस्तित्व धार्मिक चेतना की सुदृढ़ नींव पर ही स्थापित है और यही हमारी हज़ारों वर्षों से चली आ रही सभ्यता की अनवरत एवं निर्बाध जीवंतता का मूल कारण भी। इस देश में सैकड़ो भाषाएं हैं खान पान हैं वेशभूषाएं हैं पर जो शक्ति इन सब विविधताओं को एक सूत्र में पिरो कर एक देश के रूप में बांधे हुए है वह धार्मिक चेतना ही है। धर्म के नाम पर इतनी अधिक विविधता इस भारत देश में दिखाई पड़ती है कि उसे परिभाषित करना कठिन हो जाता है। पर इस असीम विविधता के पीछे कुछ मूल धारणाएं ऐसी हैं जो कि भारत भूमि में उपजे लगभग हरेक धर्म में मान्य हैं चाहे वह हिंदू धर्म हो या फिर बुद्ध जैन या सिख धर्म। यह मूल धारणाएं इस देश की मिट्टी से जुड़ी हुई हैं। बाहर से आए धर्मों में (इसाई और इस्लाम धर्म) ऐसी मान्यताएं नहीं हैं।
पहली धारणा है आत्मा की। मानव शरीर नश्वर है पर इसके अंतर में वास करने वाली आत्मा अमर है। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैंः
सभी प्राणियों के अंतर में अविनाशी देही बसता है
समझ इसे ओ भारतवंशी दुख शरीर का क्यों करता है
गीता काव्य माधुरी 2 । 30
यहां देही का मतलब देह में रहने वाली आत्मा से है और भारतवंशी का तात्पर्य अर्जुन से है जिसे गीता का उपदेश मिल रहा है।
दूसरी धारणा पुनर्जन्म की है। यानि कि मरने के बाद आत्मा दूसरा शरीर धारण कर लेती है। जैसे वस्त्र पुराने हो जाने पर हम उन्हें फैंक कर नए वस्त्र धारण कर लेते हैं वैसे ही आत्मा पुराना शरीर त्याग कर नया शरीर धारण कर लेती है। इसाई और इस्लाम धर्मों में आत्मा और पुनर्जन्म का विचार नहीं है। उनके अनुसार धरती पर यही एक जीवन है और इस जीवन में मनुष्य को अल्लाह पर (इस्लाम धर्म में) या फिर ईसामसीह पर (ईसाई धर्म में) पूरा ईमान लाना होता है यानि की पूर्ण विश्वास रखना होता है। जो विश्वास रखते हैं उन्हें मृत्यु के बाद स्वर्ग मिलता है इत्यादि। यह अंतर मामूली नहीं है। बहुत बड़ा अंतर है। आत्मा की अमरता हिंदुओं में एक निरंतरता की भावना भरती है। मरना एक पूर्णविराम नहीं है परंतु मात्र शरीर परिवर्तन है। अगर इस जन्म में कुछ बिना किया रह गया तो कोई बात नहीं अगले जन्म में कर लेंगे। पश्चिमी धर्मों में यह प्रावधान नहीं है। उनकी विचार धारा से जो कुछ करना है उसके लिये बस यही एक मौका है क्योंकि बस यही एक जन्म है और इसके बाद कहानी खत्म।
तीसरा धरणा एक अद्भुत विचार हिंदुओं में कर्मफल का है। इस विचार के अनुसार हर कर्म का फल मानव को मिलता है। अच्छे कर्म करें तो अच्छा फल और बुरे कर्म किये तो बुरा फल। अच्छे और बुरे कर्मफल मनुष्य के खाते में जमा होते रहते हैं और उन सभी के यथायोग्य फल मिलते रहते हैं। मरने के समय अगर खाते में संचित सभी कर्मों का फल न मिला हो तो अगले जन्म में वह फल मिलते हैं। इस तरह से हिंदुओं के अनुसार नवजात बालक संसार में एक संचित कार्मों की गठरी साथ ले कर आता है। नये जीवन में न केवल पुराने कर्मों के फल भोगता है पर नये कर्म भी करता है जो कि खाते में जुड़ते जाते हैं। कर्मफल प्राप्ति हेतु यह जन्म जन्म का चक्कर चलता ही जाता है। फिर हमारे संचित कर्म ही यह निर्धारण करते हैं कि नया जन्म किस रूप में होगा। कुछ व्यक्ति बहुत विपन्न और अन्य बहुत संपन्न घरों में जन्म लेते हैं। कुछ जन्म से ही दुर्बल रोग ग्रस्त या विकलांग होते हैं कुछ सुंदर बलिष्ठ और प्रभावशाली व्यक्तित्व के। यह सब हिंदू विचार धारा के अनुसार कार्मों के फल होते हैं। बहुत बुरे कर्म आत्मा को जानवरों की और कीट पतंगों की योनियों तक में जन्म लेने पर बाध्य कर सकते हैं। यहां यह साफ करना आवश्यक है कि कर्मफल का मिलना एक प्राकृतिक नियम है और भगवान का इससे कुछ लेना देना नहीं है। ऐसा नहीं कि कहीं कोई बैठा हरेक व्यक्ति के कर्मों का लेखा जोखा रखता है और उन्हें यथा योग्य कर्मफल देता रहता है। यह तो एक प्राकृतिक नियम है ठीक वैसा ही जैसा कि भौतिक शास्त्र में न्यूटन के गति संबंधी नियम। अतः मनुष्य जीवन में जो भी सुख दुख पाता है वे उसके अपने कार्मों के फल हाते हैं। तभी दुख पड़ने पर हिंदू कहता है कि पता नहीं मुझे ये किस जन्म के कार्मों की सजा मिल रही है।
इसाई धर्म और इस्लाम में भगवान को अत्यंत दयालु बताया जाता है। कर्मफल और पुनर्जन्म की धारणा इन धर्मों में है नहीं। इसलिये इन धर्म वालों के लिये सबसे जटिल यह प्रश्न हो जाता है कि यदि ईश्वर इतना दयालु है तो फिर अपनी मानव संतानों को जीवन में इतने दुख पाते कैसे देख सकता है। इस प्रश्न का कोई समुचित समाधान नहीं मिलता। या तो यह कह दिया जाता है कि दुख दे कर भगवान आपके विश्वास की परीक्षा लेता है या यह कह कर पल्ला झाड़ लिया जाता है कि ईश्वर की करनी हम मानव कैसे समझ सकते हैं ? हिंदु धर्म में यह समस्या नहीं आती। सुख दुख अपने किये कर्मों के फल हैं और ईश्वर का इनसे कुछ विशेष लेन देना नहीं है सिवाए इसके कि सभी प्राकृतिक नियम और सकल संसार ईश्वर में ही स्थित है।
अब हम उस मूल प्रश्न पर आते हैं जो कि इस लेख माला के पहले भाग में उठाया गया था। हिंदू या कि भारतीय मूल के धर्मों के अनुसार एक व्यक्ति से जीवन में क्या अपेक्षित है? या कि मानव जीवन का ध्येय और धर्म क्या है? हिंदू इस प्रश्न का साफ साफ उत्तर देते हैं। पहली बात तो यह कि मनुष्य का शरीर उसके अंदर आवास करती चेतन आत्मा द्वारा संचालित है। आत्मा परमात्मा का ही हिस्सा है और इसलिये मनुष्य वास्तव में परमात्मा का ही एक रूप है। अज्ञानवश इस सत्य को हम जानते नहीं। इसी अज्ञानवश आत्मा कर्म चक्र में फंस कर एक के बाद एक जन्मों में सुख दुख भोगती रहती है। मानव जीवन का लक्ष्य है इस जीवन चक्र से छुटकारा पाना। ज्ञान प्राप्त होने पर हमारी आत्मा अपना ईश्वरीय स्वरूप पहचानती है और परमात्मा में लीन हो जाती है। फिर पुर्नजन्म नहीं होता और सदा सदा के लिये आनंद स्वरूप प्रभु में आत्मा का वास हो जाता है। इसे ही मोक्ष या निर्वाण कहते हैं। हिंदुओं बौद्धों जैनियों और सिखों सभी के अनुसार मोक्ष प्राप्ति ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है। मोक्ष प्राप्ति ही हिंदू धर्मानुसार इस जीवन का वास्तविक ध्येय है।
~राजीव कृष्ण सक्सेना
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