You would have heard that Hinduism is the most liberal religion or religious philosophy. What does it really mean? One reason is its acceptance of multiple routes to ultimate religious goal of Moksha or liberation. Read on. For comments, feedback or questions please write to rajivksaxena@gmail.com – Rajiv Krishna Saxena
तत्व चिंतनः भाग 3 - कौन सा रस्ता लें?
भारतीय मूल के धर्मों “हिंदू, जैन, बुद्ध और सिख इत्यादि” में और मध्य एशिया मूलक धर्र्माें “इसाई, इस्लाम और यहूदी” के बीच कुछ प्रमुख अंतर पिछले लेख में बताए गये थे। अविनाशी आत्मा का अस्तित्व पुनर्जन्म और कर्म फल की धारणा भारतीय धर्मों में हैं पर मध्य एशिया के धर्मों में नहीं। कार्मफल जनित जन्म चक्र से छुटकारे और प्रभु मिलन के रूप में मोक्ष की धारणा भी विशुद्ध भारतीय है। प्रभु से जुड़ जाना मोक्ष है और जुड़ने की प्रक्रिया को योग कहते हैं। योग वह मार्ग है जिस पर चल कर मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इस तरह भारतीय मूलक धर्म आपके सामने न केवल मोक्ष के रूप में एक लक्ष्य रखते हैं पर वहां तक पहुंचने की विस्तृत विधि भी बतलाते हैं। यह मार्ग सभी के लिये खुला है पर चलना आपको स्वयं ही पड़ता है। यह एक ऐसी यात्रा है जो कोई और आपके लिये नहीं कर सकता। अन्य लोग साधक योगी और महात्मा आपको रास्ता दिखा सकते हैं प्रोत्साहन दे सकते हैं कि आप प्रयत्न करने पर मोक्ष या मुक्ति तक पहुंच सकते हैं पर इससे अधिक कुछ नहीं। योग का पुरुषार्थ मात्र आपको ही करना होगा। ऋगवेद के पुरुष सूक्त में एक सुंदर मंत्र हैः
वेदाहमेतम् पुरुषं महान्तम्
आदित्यवर्णम् तमसः परस्तात्
तमेवं विद्वानमृत इह भवति
नाऽन्यः पंथा विद्यतेऽयनाय
अर्थात मैंने अंधकार से सर्वथा परे उन महान प्रभु को जान लिया है जो कि सूर्य की भांति प्रकाशवान हैं। उनको जान कर ही मृत्यु को जीता जा सकता है और मुक्ति का इसके अलावा कोई मार्ग नहीं है। यहां ऋगवैदिक ऋषी आपको अपना अनुभव बता कर उत्साहित करते हैं कि हमने उन्हें देख लिया है और प्रयत्न करने पर आप भी देख सकते हैं। वे यह नहीं कहते कि हममें विश्वास रखो और हम तुम्हारा प्रभु से मेल करवा देंगे। प्रभु के बारे में मात्र पढ़ कर या सुन कर कभी मुक्ति नहीं मिलती। मुक्ति के लिये तो प्रभु के सक्षात दर्शन करने होंगे।और यह दर्शन स्वयं साधक को अपनी साधना से ही प्राप्त करना होगा।मध्य एशिया के धर्मों में मनुष्य और भगवान के बीच में सदा कोई रहता है। या तो जीसस जो कि भगवान के पुत्र के रूप में मान्य हैं या फिर मोहम्मद जो कि भगवान के दूत हैं। वहां सीधा भगवान का भक्त से मेल नहीं है। पर हिंदू सीधे सीधे प्रभु से ही जुड़ना चाहते हैं। और इसमे किसी बिचौलिये की आवश्यकता उन्हें मान्य नहीं है।
हो सकता है कि आप में से कइयों नें कभी इस बात पर अधिक सोच विचार न किया हो। कई ऐसे भी होंगे जो मुक्ति के लक्ष्य वाली अपनी आध्यत्मिक यात्र्रा पर चल दिये होंगे। कुछ ऐसे भी होंगे जिनकी साधना धीरे धीरे अपना रंग दिखाना आरंभ कर रही होगी। समाज में हर तरह के लोग होते हैं। कुछ सांसारिक धंधों में इतने उलझे होते हैं कि मोक्ष के बारे में सोचना की फुरसत उन्हें नहीं होती। दूसरी ओर कुछ ऐसे भी होते हैं जो सब कुछ छोड़ छाड़ कर प्रभुप्राप्ति में ही लग जाते हैं। व्यक्तिगत आध्यात्मिक प्रगति हिंदुओं में एक बहुत महत्वपूर्ण विचार है। इसको आप एक पहाड़ी के रूप में सोच सकते हैं। बहुत से व्यक्तियों नें शायद अभी तक इस पहाड़ी पर चढ़ने की आवश्यकता ही महसूस न की हो और वे नीचे जमीन पर धूमने में ही संतुष्ट हों। कुछ औरों ने चढ़ना प्रारंभ करने के लिये पहला कदम बढ़ा लिया हो सकता है। जिन्होंने चढ़ना आरंभ कर दिया है उन्हें आप साधक कह राकते हैं। धीरे धीरे चढ़ते चढ़ते आध्यात्मिक प्रगति करते करते वे एक समय चोटी पर पहुंच ही जाएंगे और मुक्त हो जाएंगे।इस उदाहरण से हम बहुत कुछ समझ सकते हैं। जैसे कि पहाड़ी पर किसी भी ओर से चढ़ना आरंभ किया जा सकता है पर चोटी अंततः एक ही है। वहीं पहुंचना है। यानि कि आपकी यात्रा हो सकता है कि मंदिर जाना शुरू करने से हो। मंदिर चाहे हनुमान का हो शिव का हो या दुर्गा का या किसी और ईष्ट देवता का । या हो सकता है कि आप स्वाध्यााय शुरू करें या फिर भजन कीर्तन या सतसंग। पहाड़ी पर चढ़ना आरंभ करने के हजारो रास्ते हो सकते हैं। भारत में फैली अनंत धार्मिक विविधता को आप इन्हीं अनगिनित रास्तों के रूप में समझ सकते हैं। कहां से आरंभ किया कैसे आरंभ किया यह महत्वपूर्ण नहीं है। अंततः लक्ष्य एक ही है। चोटी पर पहुंच कर मुक्त होना। यही कारण है कि कोई हिंदू यह नही कहता कि उसका रास्ता ही मुक्ति का एक मात्र रास्ता है। रास्ते अनंत हैं जो जिसे पसंद आए उसी पर चल दे। इसी चिंतन के कारण हिंदुओं में धार्मिक सहिष्णुता भी असीम है। शिव भक्ति भी ठीक है और विष्णु भक्ति भी। दुर्गा की आरती करें या हनुमान जी पर सिंदूर चढ़ाएं। गंगा नहाएं या बद्रीनाथ आदि तीर्थ यात्रा करें। साई बाबा को मानें या राधास्वामी को। यह सभी उस आध्यात्मिक यात्रा के पहले पड़ाव के रूप में देखे जा सकते हैं। इसी चिंतन को और आगे बढ़ाएं तो हिंदुओं के विचार में अन्य धर्मों के रास्ते भी अंततः पहाड़ी की चोटी पर ले जा सकते हैं। महात्मा बुद्ध का दिखलाया रास्ता या फिर महावीर जैन का और नानक देव का। सभी विभिन्न रास्ते हैं। सभी ठीक हैं। रस्ते अलग अलग हैं ठिकाना तो एक है।
यहां यह भी समझ लेना चाहिये कि विभिन्न रास्ते होना आवश्यक भी है। जितनी व्यक्तिगत विविधता मनुष्यों में होती है उतनी ही मार्गों में भी होनी चाहिये। लोगों की सोच अलग होती हैं. रुचियां अलग होती हैं और अपनी अपनी रुचि के अनुसार वे अपना मार्ग चुन सकते हैं। जोर जबरदस्ती से सभी को एक मार्ग पर ठेलने का विकल्प ठीक नहीं है। यह तो वैसा ही होगा कि आप एक कोट लाएं और चाहें कि वह कोट सभी व्यक्तियों पर एक दम फिट बैठे। फिर चाहे आदमी मोटा हो, पतला हो, लंबा हो या कि ठिगना। हिंदू आध्यात्मिक रास्ते के चुनाव में पूर्ण स्वतंत्रता के पक्षधर हैं।भारत की असीम आध्यात्मिक एवम धार्मिक विविधता इसका जीता जागता सबूत है।
अब इस विचार धारा को और आगे बढ़ाते हैं। अगर कोई हिंदुओं को बताए कि यशुमसीह का भी एक रास्ता है और मोहम्मद का भी तो उन्हें कोई समस्या नहीं होगी। होगा अवश्य होगा। जो इसाई हैं या जो मुसलमान हैं वे अपने रास्ते पर चलें । पहुंचेंगे वे भी अंततः उसी चोटी पर। यह सोच कि अनेकानेक आध्यात्मिक मार्ग ठीक हो सकते हैं हिंदुओं को विरासत में मिली है और इसी विचार से हिंदुओं में धार्मिक सहिष्णुता का प्रादुर्भाव होता है। इसीलिये धार्मिक कट्टरता हिंदुओं में पनप ही नहीं सकती।उन्हें तो अचरज तब होता है जब कोई धर्म यह कहे कि उनका रास्ता ही ठीक है बाकी सब बेकार है। मध्य एशिया के कुछ धर्म यह दावा करते हैं मात्र उनका रास्ता ही ठीक है। फिर वे जोर जबरदस्ती दूसरे धर्म वालों को अपने धर्म में परिवर्तित करने में जुटे रहते हैं। इसके लिये वे गरीबों को चुनते हैं। लालच देते हैं पैसा देते हैं और कई तरह के प्रलोभन देते हैं। जोर जबरदस्ती करने से भी नहीं चूकते। यह बात हिंदुओं को समझ नहीं आती। हिंदुओं ने कभी भी दूसरे धर्म वालों को जबरदस्ती हिंदू बनाना आवश्यक नहीं समझा। इसलिये भारत में और विश्व भर में इसाई मिश्नरियों की दूसरों के धर्म परिवर्तन करा कर इसाई बनाते की निरंतर चेष्टा हिंदुओं को समझ नहीं आती। दूसरे मध्य एशिया मे उपजे धर्म इस्लाम को लें। इस्लाम कहता है कि अल्लाह ही एक मात्र भगवान हैं और मोहम्मद उनके एक मात्र दूत। अंतिम सत्य के रूप में भगवान एक हैं इस विचार से हिंदू पूर्ण रूप से सहमत हैं। हम मानते हैं कि “एकं सत् विप्रः बहुदा वदंति” यानि की सत्य एक ही हैं पर उन्हें लोग अलग अलग नामों से पुकारते हैं। उन्हें अल्लाह कहें तो भी ठीक और वेदांत का निर्गुण ब्रह्म कहें तो भी ठीक। मोहम्मद का दिखलाया मार्ग ठीक है इससे भी हिंदुओं को कोई तकरार नहीं। परंतु अगर यह कहा जाए की बस वही एक मात्र रास्ता है और अन्य कोई भी नहीं तो यह बात हिंदुओं को समझ में नहीं आती। पाठक आगे स्वयं विचार कर के इस समस्या का हल सोचें। हम अब आगे चलते हैं।
यहां यह साफ साफ कहना होगा कि ऐसा नहीं है कि हिंदुओं में सभी कुछ अच्छा ही अच्छा है और कुछ भी बुरा नहीं है। अवश्य है। धर्मिक सहिष्णुता के होते हुए भी कई कुरीतियां हिंदू समाज में बहुत प्राचीन काल से चली आ रही हैं। अछूत समस्या, जातीय भेदभाव, बाल विवाह, सती इत्यादि प्रथाएं हमारे समाज में रही हैं जो यद्यपि आधुनिक युग में कम हुई है पर पूर्ण रूप से दूर नहीं हुई है। वर्तमान परिपेक्ष में इन समस्याओं का मूल समझ कर इनके उन्मूलन पर ध्यान देने की अत्यंत आवश्यकता है। मेरे विचार में इन समस्याओं का उदगम् धार्मिक न हो कर सामाजिक हैं। धर्म ह्यविशेषतः हिंदू धर्महृअंततः ठोस दार्शनिक विचारों पर निर्भर है जिनका दिन प्रतिदिन की दुनियादारी से कोई विशेष सरोकार नहीं होता, जब कि सामाजिक रीति रिवाज कालानुसार बदलते रहते हैं। ध्यान रखने योग्य बात तो यह है कि यह रीति रिवाज किसी के कह देने से नहीं बन जाते परंतु काल विशेष में परिस्थिति एवं आवश्यकतानुसार उनका विकास होता है। फिर जब समय गुजर जाता है, बदल जाता है तो अनावश्यक रीति रिवाजों को त्याग देना निश्चय ही श्रेष्ठ है। पर यह प्रक्रिया कठिन होती है। सदियों से चले आ रहे रीति रिवाज पुनः किसी के कह देने मात्र से समाप्त नहीं हो सकते। इनके उन्मूलन में समय लगता है। भौतिक विज्ञान में मूमैंटम (momentum) का नियम सर्वमान्य है। न्यूटन का पहला गति संबंधी नियम कहता है कि रुकी वस्तु को चलाने में और चलती वस्तु को रोकने में समय अथवा ऊर्जा दोनो लगते हैं । आप रीति रिवाजों को एक वस्तु जैसा ही माने । इनको आरंभ करने में और रोक देने में भी समय और ऊर्जा दोनो लगते हैं। धैर्य रखते हुए समर्पित भाव से कार्य करना होगा। पर सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि हमे एक व्यापक दृष्टि का विकास करना होगा। किस युग में किस काल में किन परिस्थितियों में किस समाज में क्या नियम थे क्या रीतिरिवाज थे इन पर आज के परिप्रेक्ष्य में तुरंत नैतिक निणर्य देना कि वह बुरा था या कि उन लोगों ने बहुत बुरा किया यह ठीक नहीं है। यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण विषय है और तत्त्व चिंतन की अगली कड़ी में वस्तुतः ठीक क्या होता है और गलत क्या होता है इसका निर्णय कैसे करे इसी मूल प्रश्न पर विस्तृत विचार करेंगे।
~राजीव कृष्ण सक्सेना
Further reading links:
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