Faith in God is central to the thinking of common Indians. This faith has given our culture an ability to survive innumerable calamities that have befallen us over several millennia. The soothing idea that an almighty God is eventually in-charge of our world provides relevance to our lives. The things we do not understand can be ascribed to the unfathomable design of the creator. Indian thinkers however never ceased to question this whole concept and in their quest of knowledge, reached the ultimate philosophy of Vedanta. Vedantic concept of Brahman is closer to the modern scientific ideas of creation of matter and evolution of life. For common people however, the faith in an almighty God remains necessary to make a sense of their lives in relation to the world that may otherwise appear quite absurd – Rajiv Krishna Saxena
तत्वचिंतनः भाग 7– भाग्यशाली हैं आस्थावान
अभी हाल में ही एक लंबे अमेरिकी प्रवास के दौरान मैंने कई अमेरिकी मित्रों से पूछा कि क्या वे भगवान में विश्वास करते हैं। ऐसी बातें अमरीकियों को बड़ी अटपटी लगती हैं पर उपयुक्त समय देख कर मैं विभिन्न मित्रों से पूछता ही रहा। यह इसलिये क्योंकि अपने राष्ट्रीय संकल्प में अमेरिकी अपने देश को… भगवान की सत्ता के अंतर्गत… मानते हैं (one nation under the God)। मैं स्वयं वैज्ञानिक हूं और मेरा अमेरिकी मित्रवर्ग भी वैज्ञानिकों का ही है। लगभग सभी मित्रों ने जगत के निर्माता एवं संचालनकर्ता के रूप में भगवान के अस्तित्व में अविश्वास जताया। मुझे लगा कि यद्यपि आम अमेरिकी जनता की भगवान में आस्था हो सकती है पर वहां के बुद्धिजीवी इस विश्वास को एक बचकाने ख्याल से अधिक नहीं मानते। कम से कम मुझे अपने वैज्ञानिक मित्रों से बातचीत कर के तो ऐसा ही लगा। मुझे ऐसा भी लगता है कि न्यूनाधिक सभी आधुनिक पश्चिमी समाजों में ऐसा ही देखने को मिलेगा। इसके विपरीत भारतीय समाज में भगवान में आस्था अभी भी बहुत गहरी है। मंदिरों में‚ कुंभ इत्यादि धार्मिक मेलों में‚ और तीर्थों एवं धर्मगुरुओं के सतसंगों मे उमड़ती भीड़ों से तो यही सिद्ध होता है। भारतवासियों जैसी दृढ़ आस्था पश्चिम में कहीं दिखाई नहीं देती। पर यह भी मानना होगा कि ज्यों ज्यों मानव चिंतन और ज्ञान की सीढ़ियां लांघता ऊपर चढ़ता है उसकी एक ऐसे भगवान में आस्था स्वतः डगमगाती है जो कि मानव के कार्यकलापों को देखता रहता हो और बुरा करने पर दण्ड देता हो। बाईबल कहती है कि जो व्यक्ति ज्ञान बढ़ाता है वह अपने दुख भी बढ़ाता है। यहां दुखों का तात्पर्य से रोजमर्रा के जीवन में आने वाली परेशानियों से नहीं है परंतु भगवान पर आस्था डगमगाने के पश्चात उभरे विकराल आध्यात्मिक क्लेश एवं जीवन की अर्थहीनता के अहसास की ओर ही इशारा है। आम सुख–दुख के फेरे प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में लगे रहते हैं। सफलता–असफलता‚ मिलना–बिछुड़ना‚ परिवार में जन्म–मृत्यु‚ व्यवसाय में हानि–लाभ इत्यादि‚ इत्यादि। जगजीत सिंह का गाया एक गीत है जो शायद आपने सुना होगा:
दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है, मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।
ग़म हो या खुशी दोनों, कुछ देर के साथी हैं, फिर रस्ता ही रस्ता है, हँसना है न रोना है।
हम ध्यान से विचार करें तो पता चलता है कि सचमुच छोटे बड़े सुख–दुख जीवन में यदा–कदा ही आते हैं। अधिकतर जीवन बस रोजमर्रा के नीरस कार्यकलापों में ही बीतता है। कितना भी बड़ा खुशी का समाचार हो आदमी की प्रसन्नता बस कुछ ही देर को टिकती है। इसी तरह कितना भी बड़ा दुख सर पर आन पड़े कुछ समय पश्चात फिर से रोजमर्रा की जिंदगी आरंभ हो जाती है। तरह तरह की चिंताएं भी जीवन में पीछा नहीं छोड़तीं। इन सब से ऊब कर मानव इस जंजाल से उठ कर एक स्थाई शांति की तालाश करता है। ऐसा चिंतनशील व्यक्ति अनायास ही यह सोचता है कि इस जीवन रूपी पचड़े में पड़ने की आखिर आवश्यकता ही क्या है? बेकार में जन्म लो फिर जीवन भर सुख–दुख के कड़वे मीठे फल खाते रहो और समय आने पर दुनियां से कूच कर जाओ। क्या जरूरत है इस सब की? क्या हो जाता अगर मानव का अस्तित्व ही न होता? क्यों आखिरकार हमें इस जीवन रूपी कोल्हू में जुतना पड़ता है? इस प्रश्न के दो उत्तर हैं एक धर्म का और एक विज्ञान का। इन दोनों का अत्यंत संक्षिप्त खुलासा कुछ इस प्रकार है –
रोजमर्रा की ऊबड़–खाबड़ जिंदगी से उठ कर एक स्थाई शांति–शिखर तक पहुंचने की मानवीय इच्छा ही धार्मिक मार्ग का वास्तविक प्रारंभ है। हम जानते हैं कि एक समय था जब मानव का विकास आरंभ ही हुआ था। तब मानव जंगलों और गुफाओं में रहता था। प्रकृति की संहारक शक्तियां जैसे तूफान, वर्षा, बिजली, आग, भूकंप इत्यादि उसे डराती थीं और ऐसी शक्तियां मानव की सीमित समझ से परे थीं। उसे समझ नहीं आता था कि दिन रात क्यों होते हैं, मौसमों का चक्र कैसे चलता है। इन सब प्रश्नों का एक उत्तर सहज ही मानव जातीय मन में आया। हो न हो यह सभी कुछ अत्यंत शक्तिशाली परंतु अदृश्य देवी देवता करते हैं। अगर वे क्रोधित हो जाएं तो विनाश कर सकते हैं। इन देवी देवताओं को शांत रखने के लिये ही पूजा आराधना की परंपरा का आरंभ हुआ होगा। वर्षा के देवता इंद्र, अग्नि देवता, सूर्य देवता, वरुण इत्यादि देवताओं की कल्पना ऐसे ही हुई होगी। फिर धीरे–धीरे सभी देवताओं के ऊपर एक सर्वशक्तिमान भगवान की कल्पना हुई होगी। एक समय ऐसा आया जब अधिकतर मानव मानने लगे कि कोई सर्वशक्तिमान भगवान हैं जो कि हमें दिखाई तो नहीं देते पर हमे जन्म और मृत्यु वही प्रदान करते हैं और जीवन पर्यान्त हमे सभी विघ्न बाधाओं से बचाने की शक्ति भी उन्हीं के पास है। भिन्न–भिन्न समाजों में भगवान को अलग अलग नामों से जाना गया। हिंदुओं ने उसे शिव, ब्रह्मा, विष्णु इत्यादि नाम दिये। ईसाइयों ने उसे आकाश स्थित पिता कहा और ईसा को उसका पुत्र माना। मुसलमानों ने उसे अल्लाह कहा और मुहम्मद को उसका पैगांबर माना। मूलभूत विचार यह था कि मानव का जन्म–मरण भगवान की इच्छानुसार होता है। यह सब क्यों होता है यह प्रश्न हमे पूछने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि हमारी सीमित बुद्धि इस प्रश्न का उत्तर समझने के योग्य है ही नहीं। प्रभु की लीला प्रभु ही जाने। ईसाई एवं इस्लाम धर्मों ने माना कि गलत काम करने पर प्रभु दण्ड देते हैं और इसीलिये जीवन के कार्यकलाप भगवान के दिये नियमों के अनुसार ही होने चाहिये। बाइबल और कुरान में ऐसे नियम विस्तार से दिये हुए हैं। भारत भूमि पर जन्मे हिंदू, बुद्ध, जैन, सिख इत्यादि धर्मों ने कर्मचक्र की कल्पना की और कहा कि जीवन में सुख–दुख स्वयं के किये कर्मों के फल स्वरूप ही मिलते हैं और भगवान का इससे कुछ लेना देना नहीं होता। कर्मों का फल भोगने के लिये पुनर्जन्म का विचार भी भारत भूमि की ही देन है। साधारण व्यक्ति इन धार्मिक समाधानों से संतुष्ट हो गये पर उच्चकोटि के चिंतनशील मानव (ऋषि मुनि इत्यादि) के प्रश्नों का समाधान एक जगत–विधाता भगवान की कल्पना से न हुआ। उनके प्रश्न बढ़ते गए। चेतना क्या है? भगवान का स्वरूप क्या है? क्या उनकी भी जन्म और मृत्य होती है? वे रहते कहां हैं‚ छुपे क्यों रहते है और इस जगत को चलाने के पीछे उनका प्रयोजन क्या है? अंततः सत्य क्या है इसको जानने की विधि के रूप में कई प्रकार की योग विधियों का आविष्कार भी भारत भूमि पर ही हुआ। न्याय, वैशेषिक, संख्य‚ योग इत्यादि दर्शनों से होते हुए भारतीय मुनि चिंतन की पराकाष्ठा यानि कि वेदांत दर्शन तक पहुंच गए। वेदांत दर्शन आम आदमी की देवी देवताओं और जगत–नियंता भगवान की काल्पनाओं से कहीं ऊपर उठ कर ऐसे तध्यों तक पहुंचा जो सहस्रो वर्षों के बाद उपजे आधुनिक वैज्ञानिक चिंतन पर भी खरे उतरते हैं। आइये अब विज्ञान द्वारा बताए गए उत्तरों पर भी एक दृष्टि डालें।
विज्ञान कहता है कि इस पृथ्वी पर मानव की रचना किसी चेतनायुक्त भगवान ने नहीं की। पृथ्वी पर अनायास ही पहले पहल सूक्ष्म जीव पैदा हुए और फिर जीव–विकास के सिद्धांत से अन्य उच्च एवं उच्चतर जीवों का विकास होता गया। इस तरह सूक्ष्म जीवों से लेकर मानव तक विकास में लगभग 300 से 400 करोड़ वर्ष लगे। इस विकास–क्रम के चलते आधुनिक मानव का पृथ्वी पर आगमन हुए अभी लगभग एक लाख वर्ष ही हुए हैं। डारविन ने जीव विकास प्रकिया की अदभुत व्याख्या की जिसके द्वारा धरती पर मानव के आगमन एवं उसकी सहज वृत्तियों को काफी हद तक समझा जा सका है। इसके साथ–साथ पदार्थ के मूल स्वरूप को समझने में भी वैज्ञानिक बहुत कुछ सफल हुए। विज्ञान एक प्रयोगात्मक विधि है और वैज्ञानिक सत्यों का परीक्षण कोई भी कर सकता है। इसीलिये वैज्ञानिक तथ्यों पर विश्वास करना आसान होता है। मानव‚ जीवों एवं जड़ पदार्थों की संरचना किसी चेतन शक्ति के हाथों हुई है इसका कोई भी प्रमाण विज्ञान को नहीं मिला।इसीलिये एक जगत–निर्माता भगवान को विज्ञान नहीं मानता। मेरे अमेरिकी वैज्ञानिक मित्र भी इसीलिये भगवान में विश्वास को नकारते थे। पदार्थ के मूल परमाणुओं का उदगम् अनंत खाली स्पेस में लहर के रूप में होता है यही वैज्ञानिक धारणा है। अचरज की बात तो यह है कि यह धारणा हज़ारों साल पहले भारत में उपजे वेदांतिक दृष्टिकोण से बहुत कुछ मिलती जुलती हैं।
वेदांत के अनुसार जगत में एकमात्र सत्य ब्रह्म है। ब्रह्म के बारे में उपनिषद कहते हैं कि वह समस्त जगत में फैला मूल तत्व है जो कि अनादि और अनंत है, असीम है, चेतना स्वरूप है उसके बाहर कुछ भी नहीं है। विश्व के सारे जड़ पदार्थ और चेतन जीव ब्रह्म से उपजते हैं और फिर ब्रह्म में ही लीन हो जाते हैं। यह सृष्टिचक्र संसार को एक स्वचालित मशीन की तरह चलाता रहता है। मानव की मूल वास्तविकता भी ब्रह्म ही है। आदि शंकराचार्य (लगभग 700 AD) ने एक अत्यंत सुंदर कविता ‘निर्वाण षटकम्’ लिखी जिसमें मानव के वास्तविक ब्रह्मरूप की व्याख्या की गई है। यह सुंदर संस्कृत कविता और इसका हिंदी अनुवाद मैं शीघ्र ही पाठकों के लिये गीता–कविता में प्रस्तुत करूंगा पर उसका एक अंश यहां दे रहा हूं:
मनोबुद्धय्हंकार चित्तानि नाहं‚ श्रोत्रजिव्हे न च घ्राणनेत्रे
न च व्योमभूमिर्न तेजो न वायुः‚ चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम।
मैै न तो मन हूं‚ न बुद्धि‚ न अहांकार‚ न ही चित्त हूं
मैं न तो कान हूं‚ न जीभ‚ न नासिका‚ ना ही नेत्र हूं
मैं न तो आकाश हूं‚ न धरती‚ न अग्नि‚ ना ही वायु हूं
मैं तो मात्र शुद्ध चेतना हूं‚ अनादि अनंत हूं‚ अमर हूं।
ब्रह्म से संसार उपजता अवश्य है पर ब्रह्म का संसार के कार्यकलापों से कुछ लेना देना नहीं है। मानव से या उसके दुख–सुख से भी ब्रह्म का कुछ वास्ता नहीं है। ब्रह्म प्रार्थना नहीं सुनता। विज्ञान के अनुसार सभी पदार्थ मूल परमाणुओं से बने हैं और यह परमाणु एक अनंत खाली विस्तार में लहर रूपी हलचल के सिवाय कुछ भी नहीं हैं। यह सत्य ब्रह्म की कल्पना से बिल्कुल मिलता जुलता है। एक जगत–नियंता भगवान को न तो विज्ञान मानता है ना ही वेदांत। वेदांत तो विज्ञान से आगे बढ़ कर यह भी कहता है कि ब्रह्म वस्तुतः अपरिवर्तनशील है और उससे कुछ उपज ही नहीं सकता। जो भी जड़ चेतन हम इस विश्व में देखते हैं वह वास्तव में माया है और उसकी वास्तविक सत्ता है ही नहीं। जब योगी यह पहचान लेता है कि वह स्वयं माया का रूप है और उसका वास्तविक स्वरूप ब्रह्म ही है, तब उसका जीवन से, जगत के कार्य–कलापों से, और मायावी सुख–दुखों से काई सराकोर नहीं रह जाता। तब उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है और वह सदा सदा के लिये कष्टकारी माया–जनित विश्व के कार्य–कलापों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
पर क्या हम मान लें कि जगत–नियंता प्रभु की धारणा एक मानव कल्पना मात्र है? इस प्रश्न के उत्तर में कई लोग कहेंगे कि मानव बुद्धि अत्यंत सीमित है और इस सीमित बुद्धि से वास्तविक सत्य को जानना हमारे लिये बहुत कठिन है। जो भी हो‚ सांसारिक सत्य तो यही है कि एक जगत–नियंता प्रभु की धारणा मानव समाज के एक बहुत बड़े हिस्से को जीने के लिये आवश्यक आंतरिक शक्ति प्रदान करती रही है। इसी के फलस्वरूप मानव कष्टों को झेलते हुए भी जीवन यात्रा पर चलता जाता है। अगर सभी यह समझ लें कि भगवान नहीं हैं और हमरे सुकर्मों और दुष्कर्मों को देखने वाला कोई भी नहीं है तो एक ऐसी अराजकता फैल सकती है जिसका अंत मानव जाती के विनाश में ही हो सकता है। विख्यात विचारक वॉल्टेयर ने कहा था कि अगर भगवान नहीं होते तो भी मानव को उनका आविष्कार करना ही पड़ता। यह इसलिये क्योंकि भक्तों का ध्यान रखने वाले भगवान की अत्यंत उपयोगी धारणा ने मानव जाति को संकटों से जूझने का साहस और जीवन जीने का प्रयोजन प्रदान किया है । इसीलिये वे व्यक्ति जो अंत तक प्रभु पर आस्था एवं विश्वास कायम रख पाते हैं वे बड़े भाग्यशाली होते हैं। ऐसे व्यक्ति संसार के अस्तित्व में विश्वास करते हैं और एक भगवान को ऐसे विश्व का नियंता मान कर उसकी पूजा प्रार्थना में समय बिता सकते हैं। इस दृष्टिकोण से भारतवासी अत्यंत भाग्यशाली हैं। पर आधुनिक युग मे हो रहे विचार परिवर्तन को हम रोक नहीं सकते। ज्यों ज्यों विज्ञान और वैज्ञानिक धारणाओं का प्रसार होगा धर्म का वेदांतिक स्वरूप ही विश्वसनीय बचेगा। विश्वास के युग का अंत होगा और ठोस वैज्ञानिक विचारों की मान्यता बढ़ेगी।
भारतीय समाज के सामने यह एक विशाल समस्या है। ज्यों ज्यों देश विज्ञान का सहारा लेकर एक विकसित देश बनाने का प्रयास कर रहा है विज्ञान की दुधारी तलवार हमारे समाज के पुराने विश्वासों और प्रभु आस्था को धीरे धीरे काट रही है। जगत–नियंता भगवान की धारणा को त्याग कर हमारे समाज में भी वही प्रश्न उठेंगे जिनकी दल दल में पश्चिमी समाज फसते जा रहे हैं। अगर भगवान नहीं हैं तो भगवान द्वारा दिये नियम भी नहीं हैं। और नियम नहीं हैं तो केवल वैज्ञानिक दृष्टि से अच्छे और बुरे का निर्णय लेना बहुत कठिन है। वे व्यक्ति जो चिंतन मनन से इस नतीजे पर पहुंच जाते हैं कि इस मानवीय दुनियां को चलाने वाला भगवान वास्तव में कोई है ही नहीं उनके सर अजीब सी समस्या आ पड़ती हैै। आप अच्छा काम करें या बुरा, सुखी हों या दुखी, जियें या मरें, भगवान नहीं हैं तो कोई देखने वाला ही नहीं है। तो फिर क्या करें और क्यों करें? इस स्थिति में वेदांत और योग ध्यान केवल योगियों को शांति प्रदान कर सकते हैं साधारण समाज को नहीं। क्या जगत–नियंता प्रभु की धारणा के बिना भी मानव समाज कायम रह सकता है, यह ज्वलंत प्रश्न है। ध्यान देने योग्य बात है लेनिन एवं स्टालिन (रूस) मुसोलीनी (इटली) माओत्से तुंग (चीन) और पॉट पॉल (कम्बोडिया) इत्यादि के प्रभु–धारणा–विहीन साम्यवादी समाज बनाने के प्रयोग प्रायः असफल रहे हैंं।
अंत में यही कहना होगा कि अगर आप एक जगत नियंता भगवान में दृढ़ विश्वास रखते हैं तो आप भाग्यशाली हैं क्योंकि तब आप पशोपेश से विगत अपना जीवन जी सकते हैं। अगर आप ज्ञान के मार्ग पर चलते जगत–नियंता प्रभु की धारणा से ऊपर उठ चुके हैं तब अपने जीवन के प्रयोजन जानने और अपने कर्मों के परिणामों का दायित्व उठाने का प्रयास आपको स्वयं ही करना होगा।
~राजीव कृष्ण सक्सेना
Further reading links:
तत्व चिंतन: भाग 1 – तत्व चिंतन की आवश्यकता तत्व चिंतनः भाग 2 – भारतीय धर्मों की मूल धारणाएं तत्व चिंतनः भाग 3 - कौन सा रस्ता लें? तत्व चिंतनः भाग 4 – अच्छा क्या है बुरा क्या है? तत्व चिंतनः भाग 5 – नई दुनियां, पुरानी दुनियां तत्वचिंतनः भाग 6 – जीवन का ध्येय तत्वचिंतनः भाग 7– भाग्यशाली हैं आस्थावान तत्वचिंतनः भाग 8 बुद्धि : वरदान या अभिशाप तत्वचिंतनः भाग 9 – फलसफा शादी का
3 comments
Pingback: तत्व चिंतनः भाग 2 – भारतीय धर्मों की मूल धारणाएं – Geeta-Kavita
Pingback: तत्व चिंतन: भाग 1 – तत्व चिंतन की आवश्यकता – राजीव कृष्ण सक्सेना – Geeta-Kavita
Pingback: तत्वचिंतनः भाग 8 बुद्धि: वरदान या अभिशाप – राजीव कृष्ण सक्सेना – Geeta-Kavita