Inroduction:
Dr. Dharamvir Bharati was my Mama ji, the only brother of my mother Dr. Veerbala. Both are no more. Here I write about my memories of Bharati Ji, seen first from the eyes of a little child and then as a young boy busy in my own career. Rajiv Krishna Saxena
मामा जी (डॉ धर्मवीर भारती): कुछ संस्मरण
बचपन की हम बच्चों की मामा जी डॉ धर्मवीर भारती की यादें बड़ी लुभावनी हैं । अम्मा के साथ हम तीनों भाई गर्मियों की छुट्टियों में अक्सर इलाहबाद (अब प्रयागराज) चले जाते थे । पिता जी डॉक्टर थे और उनका अपने मरीज़ों को छोड़ कर जाना संभव नहीं हो पाता था | वहाँ मामा जी (भारती जी) से स्टेशन पर मिलते और वहां से इक्के या तांगे पर घर पहुंचते । मामा जी बहुत लंबे थे रंग सांवला था । उनकी हंसी हम सब को अच्छी तरह से याद है। बहुत जोर से ठाहका मार कर हंसते थे । हम भांजों से बहुत प्यार करते थे और अक्सर हमें बाजार मेले इत्यादि ले जाते थे । एक बहुत पुरानी फ़ोटो यहाँ दे रहा हूँ। मामा जी इसमे हैं। साथ में डॉ वीरबाल (उनकी बहन बिल्कुल बाएँ ) हैं और मैं भी (बेबी सबसे दाएं !) । मामा जी का लिखने पढ़ने का कमरा विशाल लगता था। उसमे किताबों का जमघट लगा रहता । जब कुछ बड़े हुए तो वहां घुस कर अपने लायक कुछ किताबें हम ढूंढते रहते थे । उनकी लाइब्रेरी से लेकर पढ़ी एक किताब “काठ का उल्लू और कबूतर” मुझे बहुत पसंद थी | याद नहीं कि उस किताब का लेखक कौन था |
बाद में मामा जी धर्मयुग के संपादक बन कर बंबई चले गये । हम लोगों का इलाहबाद जाना बंद हुआ पर बंबई हम अवश्य जाते रहे । बहां वार्डन रोड स्थित उनके फ्लैट में हम सब बहुत धमा चौकड़ी मचाते थे। मामा जी हम पर कभी भी नाराज नहीं हुए । मुझे अभी भी याद है जब बह हम बच्चों को पहले पहल समुद्र दिखाने ले गए । दिल्ली से आए हम बच्चों के लिये तो समुद्र एक अजूबे से कम नहीं था |मामा जी के साध हम अक्सर जुहू , चौपाटी और गेट-वे-आफ-इंडिया जाते । मामा जी हमें एक बारअपना दफ्तर दिखाने भी ले गए । बहां धर्मयुग छपने की पूरी प्रक्रिया उन्होंने हमे समझाई |
किशोरावस्था पहुंचने पर मैंने मामा जी की किताबें पढ़ीं । गुनाहों का देवता, मुरदों का गांव, चांद और टूटे हुए लोग, नदी प्यासी थी, ठेले पर हिमालय, सूरज का सातवां घोड़ा इत्यादि बड़े चाव से पढ़ें ।उनके लेखन नें मेरे मन में एक दृढ़ जगह बनाई । अंधायुग मैंने बार बार पढ़ा और उसके कई अंश पढ़ते हुए अभी भी मेरे मन में एक झुरझुरी सी हो जाती हैं । विशेषता वह अंश जहां भगबान श्री कृष्ण गांधारी का शाप स्वीकार करते हैं । कई बार इस नाटक का मंचन भी मैंने देखा है जो कि हमेशा दिल को छू जाता था । फ़िर गुनाहों के देवता पर फिल्म बन रही है यह सुनते रहे । अमिताभ बच्चन तब नए नए फ़िल्मों में आए थे और सुना था कि वही चंदर का पार्ट करेंगे । मामला काफी ऊपर तक पहुंचा पर फिर फिल्म क्यों न बन सकी हम बच्चों को पता नहीं चला । “सूरज का सातवां घोड़ा” की फिल्म अवश्य बनी जिसको भारत सरकार का पुरूस्कार भी मिला |
हम तीनों भाई विज्ञान की शिक्षा में चले गए और फिर एक अरसे तक कला के क्षेत्र से और विशेषत: मामा जी से हमारा सीधा संपर्क टूट गया । इधर अम्मा भी लेखिका के रूप में अपनी पहचान बनाने लगीं थीं। उनकी कविताएं कहानियां विभिन्न पत्रिकाओं में “वीरा” के नाम से छपती रहती थीं। एक उपन्यास “मौत का फूल” भी छपा और मुझे बहुत पसंद आया । इस तरह कला के क्षेत्र में न होते हुए भी साहित्य से हमारा नाता किसी न किसी तरह से जुड़ा ही रहा। बाद में इन्हीं बचपन के संस्कारों ने मुझे स्वयं लेखन के लिये प्रेरित किया होगा इसमे संदेह नहीं है ।
मामा जी के अंतिम बर्षों में मिलने के कुछ मौके मुझे मिले और उनका मैंने बहुत सदुपयोग किया । उनसे लंबे लंबे वार्तालाप किये । हिंदी के घटते हुए पाठकों की समस्या उनके विचार में इतनी बड़ी समस्या नहीं थी । उनका विचार था कि यह समस्या बड़ी महानगरों में अधिक प्रतीत होती है पर छोटे छोटे शहरों में हिंदी के पाठक अभी भी हैं और कुछ समयोप्रांत जब उनकी किताबें खरीदने की क्षमता बढ़ेगीतो हिंदी प्रगति करेगी । आाज उनकी बात सत्य होती प्रतीत होती है । हिंदी के प्रमुख समाचारपत्रों की पाठक संख्या अंग्रेजी के पाठकों से दस गुना हो चुकी है। हिंदी की टी वी चैनल्स भी इतनी प्रसिद्ध हो गई हैं कि विभिन्न विदेशी चैनल्स अपने लगभग सभी कार्यक्रम हिंदी में भी प्रस्तुत कर रही हैं ।
मामा जी को जब व्यास सम्मान मिला तो मैं भी उस समारोह में गया । सम्मान विशेषत: उनकी पुस्तक “सपना अभी भी” पर मिला था । उस पुस्तक से ही मैंने हिंदी कविता पढ़ना आरंभ किया | “तटस्थता: तीन आयाम” कविता समूह नें मुझे बहुत प्रभावित किया । इस पर मामा जी को एक लंबा पत्र लिख कर मैंने अपनी प्रतिक्रिया भेजी । मामा जी का उत्तर पोस्ट कार्ड पर आया । वह अक्सर पोस्टकार्ड ही लिखते थे। उन्होंने अपने उत्तर में आश्चर्य प्रगट किया कि बैज्ञानिक होते हुए भी मुझे साहित्य की इतनी पैनी समझ है । पाठकों के लिये इस पोस्टकार्ड की प्रतिलिपि मैं यहां दे रहा हूं। इससे उनके पत्र लेखन शैली और हस्तलेख की पहचान होती है |मामा जी के अन्य कविता संगह मैंने बाद में पढ़े । “ठंडा लोहा” संवेदनशील पाठक की आंखें नम करता है। “कनुप्रिया” या एवं “सात गीत बर्ष” की कई कविताएं मन को अंदर तक छू जाती हैं ।
भारती जी की वे कविताएं मुझे विशेषता पसंद हैं जिनमें से मिट्टी की खुशबू आती है। और उनकी अधिकतर कविताएं ऐसी ही हैं। अम्मा (डॉ वीरबाला) अपने भाई भारती जी के लिये लिखती हैं कि “उनके जुझारू लेखक में लेखत्व का गर्व नहीं था। वह एक अतरसुइया जैसे पिछड़े मुहल्ले में घूमते हुए अर्ध ग्रामीण ही थे।” (देखिये लेख “यादें भईया की” इसी बेबसाइट पर)। यहीं व्यक्तित्व उनकी कविताओं में मिट्टी की सुगंध लाता है। बंबई में रहते हुए भी उनमें यह अनुभूति प्रखर रही। एक कविता में वह कहते हैं:
एक लाख मोती, दो लाख जवाहरात वाला,
यह झिलमिलाता महानगर शाम होते ही
जाने कहां बुझ जाता है –
उग आता है मन में जाने कब का छूटा
एक पुराना गंवई का कच्चा घर,
जब जिंदगी में केवल इतना ही सच था,
कोकाबेली की लड़, इमली की छांव!
मुझे तो लगता हैं कि यही ग्रामीण संस्कार दोनो भाई बहनों भारती जी और वीरबाला जी, के अंतर में एक बराबर से बैठा था। अम्मां की कविताओं में भी मिट्टी ही की सुगंध बसी है जो कि भारती जी की कई कविताओं में दिखाई पड़ती है। कुछ पंक्तियां देखें:
मेरे हाथ रची मेंहदी,
मेरी बगिया बौराया फागुन
मेरे कान बजी बंसी धुन,
घर आया मनचाहा पाहुन
एक पुलक अधरों पर चितबन,
एक नमन में मधुर मधुरतर
उड़ आया ऊंची मुडेर से,
मेरे आंगन श्बेत कबूतर
या
कितने ही दीपक मैं, आंचल की ओट किये
नदिया तक लाई थी, लहरों पर छोड़ दिये
लहरों की तरणी से, दीपों के राही को
तटपर उतारा, या द्वार आकर लौट गए
ऐसी कविताएं आजकल की महानगरीय संस्कृति से त्रस्त आत्माओं को एक स्नेहशील ठंडे पवन झकोरे के समान गुदगुदा जाती हैं । ऐसा लगता हैं कि कहीं गहरे में जो हम सभी एक मूलभूत भारतीय आत्मासे जुड़े हुए हैं उन संबंधों की तुष्टि हो जाती है ।
किसी भी कवि को हम दो प्रकार की दृष्टियों से देख सकते हैं । उनके जीवन से अंतरंगता उनके मानवीय पहलू को उजागर करती हैं। कवि व्यक्तिगत जीवन में कैसा था, उसका व्यवहार कैसा था इत्यादि पाठकों के लिये उत्सुकता का विषय हो सकते हैं । पर अंतत: उसका वास्तविक्त योगदान उसकी कृतियां ही होती हैं और इतिहास उनका ही मूल्यांकन करता है। भारती जी की कई कृतियां कालजयी हैं। यद्यपि वे अपने को नास्तिक मानते थे पर भगवान कृष्ण के प्रति उनकी भावना अंतरंग और गहरी लगती है। विश्वास ही नहीं होता कि बे नास्तिक हो सकते थे । अंधायुग के स्वर मानो सहस्रों बर्ष पूर्व उठे थे और बस पुस्तक में मुखरित मात्र हुए हैं । कनुप्रिया में लेखनी कृष्ण के प्रति एक अदभुत सम्मोहन से बाध्य हो कर लिखती प्रतीत होती है |
मामा जी बंबई जाने के पश्चात् फिर कभी भी इलाहाबाद नहीं लौटे । मैंने एक बार कारण पूछा तोउन्होंने बताया कि इलाहाबाद की जो छवि उनके हृदय में बसी थी उसे वे वास्तविकता से टकरा कर चूर चूर नहीं करना चाहते थे । अंतत: वे इलाहाबाद गए अवश्य । उनकी अस्थियां इलाहबाद के संगम में विसर्जित हुई । मैं उस समय वहीं था । गंगा-जमुना संगम की विशाल जलराशि में वह अस्थियाँ ऐसे विलीन हो गई जैसे कि भारतीय परंपरा और संस्कृति में भारती जी का हृदय ।
राजीव कृष्ण सक्सेना
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