This article discusses the aim of living a life; its Eastern and Western perspectives. Rajiv Krishna Saxena
जीवन का ध्येय
जीवन जीने को एक यात्रा कहा गया है। जीवन जीना यानि कि जीवन पथ पर चलना। पर यात्रा का तो एक लक्ष्य होना चाहिये। हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है? अगर आप रेलगाड़ी में सफर करते किसी व्यक्ति से पूछें कि वह कहां जा रहा है तो आपको साफ साफ उत्तर मिलेगा। कोई यह नहीं कहेगा कि “मैं तो बस जा रहा हूं । कहां जा रहा हूं पता नहीं।” पर जीवन यात्रा पर चलने वाला शायद ही कोई यात्री यह बता पाए कि उसका ध्येय क्या है मंजिल कहां है। हम इस पथ पर अनायास ही आ जाते हैं। जब जन्म होता है हमें कोई सोच समझ नहीं होती और जब सोच समझ आती है हम पाते हैं कि यह यात्रा अजीब सी है। आप चलना चाहें या नहीं चलना तो पड़ेगा ही। हमारी इच्छा हो या न हो। ऊपर से ध्येय का कुछ अता पता नहीं होता न कोई बताने वाला होता है। हमारे पास इसके अलावा कोई चारा नहीं होता कि इधर उधर औरों को चलते देखें और उनका अनुकरण करें। ध्येय की अनिभिज्ञता का परिणाम यह होता है कि जाने अनजाने लक्ष्य यह बन जाता है कि जीवन यात्रा को कितना आरामदायक बनाया जाये। सुख सुविधाएं एकत्रित की जाएं जमीन जायदाद बनाई जाए नौकर चाकर हों और इन सब के लिये पैसा हो बस ढेर सा पैसा।रेल गाड़ी के उदाहरण से देखा जाए तो यह ऐसा है जैसे कि कोई व्यक्ति अपने डब्बे में अपनी सीट को बहुत आराम दायक बनाने में लगा हो। तकिये और गद्दे लगा रहा हो लोगों से झगड़ा कर के आस पास की जगह घेर रहा हो खाने पीने की स्वादिष्ट चीजें जमा कर कर के रख रहा हो। पर उससे पूछो कि भले आदमी आखिर जा कहां रहे हो तो वह सिर खुजा कर इधर उधर ही देखता रह जाए। बस जा रहे हैं यह तो पता नहीं कहां पर जहां भी जा रहे हैं ठाठ से जा रहे हैं। ऐसे यात्री को आप अचरज से देखते ही रह जाएंगे। आप कहना चाहेंगे कि सफर कुछ देर का है क्या फर्क पड़ता है कि कितना आरामदायक हो। महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उतरोगे कहां। यह कोई अंतहीन यात्रा तो है नहीं। पर पुनः जीवन यात्रा की बात आये तो ऐसे उत्तर के अलावा हमे कोई उत्तर सूझता ही नहीं।
इस धरती पर जीवन यात्री अकेले हम ही हैं ऐसा नहीं है। असंख्य अन्य जीव जंतु भी अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। पर चिंतन शक्ति के अभाव में वे यह ध्येय संबंधी प्रशन पूछने मे असमर्थ हैं। बस आंतरिक सहज वृत्तियों (Instincts) के बल पर वे जीवन जीते हैं और समय आने पर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। एक तरह से देखा जाए तो यह भी एक अच्छा विकल्प है। ज्यादा माथापच्ची का क्या फायदा। बस जियो जाओ और समय आने पर जगत से कूच कर जाओ। जानवरों की मनस्थिति से जीना आ जाए तो कोई बुरा नहीं है। जानवर न तो धन जमा करते हैं न जमीन जायदाद बनाते हैं। वे पृक्रिति को बदलने की चेष्टा भी नहीं करते और पर्यावरण की बरबादी का कारण भी नहीं बनते । हम मानव सुख साधन जुटाने की स्वार्थी प्रक्रिया में पर्यावरण का विनाश कर रहे हैं । अनावश्यक संसाधनों की जमाखोरी से दूसरे मनुष्यों का हक मार रहे हैं। जीव जंतुओं का सफाया ऐसे कर रहे हैं जैसे कि यह धरती मात्र हमारे लिये ही हो। अस्त्र शस्त्रों की ऐसी होड़ में लगे हैं जिसका परिणाम विनाश के सिवाय कुछ हो ही नहीं सकता। हम उच्चकोटि की चिंतन शक्ति के धारक हैं पर लगता है कि हमसे अच्छे तो अन्य जीव जंतु हैं जो जानबूझ कर अन्य जीवों के लिये समस्या नहीं बनते।
हमारा सौभाग्य है कि भारतवर्ष की धरती पर अनेकानेक अत्यंत उच्चकोटि के चिंतकों ने जन्म लिया और इस ध्येय के प्रश्न पर गहन चिंतन किया। युगों युगों के इस चिंतन के फलस्वरूप इस पावन धरा से एक मूल विचार उभरा कि मानव जीवन का ध्येय है सत्य की व्यतिगत खोज। हम सभी बचपन से कथा कहानियों में धार्मिक वृतांतों में पढ़ते सुनते आ रहे हैं कि लोग अक्सर सत्य ही खोज में निकल जाते थे। साधू सन्यासी बन जाते थे या घर गृहस्थी में रहते हुए भी सत्य के चिंतन में लगे रहते थे। यह व्यक्तिगत सत्य की खोज की प्राचीन परंपरा भारत में बड़ी गहरी है और एक तरह से हमारे समाज की मूल धूरी भी है। भरतीय समाज ने मानाव जीवन को चार भागों में बांटा जिन्हें जीवन के चार आश्रमों के रूप में मान्यता मिली। पहला भाग ब्रह्मचर्य आश्रम जीवन के पहले 25 वर्ष शिक्षा ग्रहण करने और आजीविका के साधनों मे पारंगत होने के लिये रखा गया। दूसरा गृहस्थ आश्रम पचास वर्ष की वय तक घर बार बसाने संतान प्रप्ति और समाज चलाने में योगदान के लिये रखा गया। तीसरा आश्रम वानप्रस्थ पचास वर्ष से 75 वर्ष की वय होने तक सामाजिक कार्यों से हाथ खींचने समाज सेवा में ध्यान देने और आध्यात्मिकता में रुझान के विकास के लिये रखा गया और अंततः सन्यास आश्रम समाज से मुक्त हो अंतर्मुखी व्यक्तिगत चिंतन–मनन–ध्यान और सत्य की खोज के लिये रखा गया। इस तरह सत्य की खोज को जीवन के अंतिम ध्योय के रूप में मान्यता मिली। यह चार आश्रमों वाली जीवन प्रणाली सादा जीवन व्यतीत करने की थी और इसके चलते भोग–विलास‚ प्रदूषण‚ क्लेश एवं स्वार्थपूर्ति की समस्याएं जो आज मानव समाज को विनाश की कगार पर ले आई हैं उनका उतपन्न होना कठिन था।
जिस समाज में सत्य की खोज को प्राथमिकता दी जाए उसमें ऐसी गंभीर समस्याएं उतपन्न नहीं हो पातीं। सत्य की आंतरिक खोज के प्रयत्न वयक्ति विशेष को एक ऐसा अनोखा आंतरिक संबल प्रदान करते हैं कि बाहरी ताम–झाम और भोग–विलास मन को लुभाने में असफल रहते हैं। इसके नितांत विपरीत पश्चिमी समाजों में ऐसे आंतरिक संबल का कभी विकास नहीं हुआ। उन्होंने बहरी भौतिक संसार मात्र को सत्य माना और उसी में जुटे रहे। इसके फलस्वरूप उन्होंने विज्ञान का विकास किया और भौतिक सुख सुविधाओं भोग विलासों के विकास में अदभुत सफलता प्राप्त की। इस तरह पूर्वी मुख्यतः भारतीय समाजों ने अंदरूनी सत्य की खोज को जीवन का मूल ध्येय मान और वाह्य भौतिक संसार के विकास मे अधिक महत्व प्रदान नहीं किया जबकि पश्चिमी समाज सत्य की खोज के ध्येय से अनिभिज्ञ बाहरी संसार के विकास में लगे रहे। इसके परिणाम आज साफ दिखाई देते हैं। पश्चिमी देशों में बाहरी चमक दमक है सुख सुविधाएं भरपूर हैं और विज्ञान का विकाास अपनी परिकाष्ठा पर पहुंचा हुआ है। भारतीय समाज ने इन चीजों के विकास को अधिक महत्व नहीं दिया जिसके फलस्वरूप आजकल एक अटपटी स्थिती उतपन्न हो गई है। आध्यात्मिक परिपक्वता की वय को प्राप्त करने से पहले ही भारतीय समाज का युवा वर्ग पश्चिमी भौतिक सुख सुविधाओं से अतयंत अविभूत हो जाता है और उसका अंधानुकरण करने में लग जाता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि आध्यात्मिकता प्रधान भारतीय मूल दर्शन शनै शनै लुप्त होता जा रहा है।
यह कहना अतिश्योक्ति न होगी कि आज की दुनियां में जीवन को जीने की पश्चिमी मूलतः अमरीकी शैली पूरे विश्व में एक आदर्श मॉडल के रूप में उभरती दिखाई दे रही है। विश्वभर का युवा वर्ग इससे बेहद प्रभावित है। पश्चिम के अंधानुकरण के फल स्वरूप विनाश की ओर बढ़ रहे हैं। यह गंभीर समस्या है और इसका निदान असंभव सा ही प्रतीत होता है। कुछ व्यक्तियों के कहने मात्र से से समाज अपनी लीक नहीं छोड़ता। पश्चिमी चमक दमक जिसके मूल में रंगा रंग अमरीकी जीवन प्रणाली है उसने विश्व भर के युवक समाज में ऐसी धाक जमा दी है कि हर कोई उसे ही अपनाना चाहता है। त्याग और सादगी का भारतीय मार्ग युवा वर्ग को आकर्षित नहीं कर पा रहा है। पूरे विश्व में अमरीकी मॉडल ऐसा छा गया है कि सादे और और आध्यात्मिक चिंतन युक्त मार्ग के बारे में कहना नक्कारखाने में तूती की आवाज सा लगता है।
पर सब कुछ समाप्त हो गया है यह भी नहीं कह सकते। विडंबना तो यह है कि आध्यात्मिकता के प्रति युवा वर्ग का रुझान धीरे धीरे पश्चिमी समाज की ओर से ही आएगा ऐसा लगता है। भारतीय चिंतन और दर्शन जिसे हम भारत में भूलते जा रहे हैं उसकी उपयोगिता पश्चिमी समाज धीरे धीरे समझ रहा है ऐसा मुझे लगता है। सादे जीवन और योग दर्शन के महत्व को पश्चिमी समाज का एक वर्ग अपनाने लगा है। अमरीका के विभिन्न शहरों में योग कक्षाओं में लोगों की रुचि बढ़ती प्रतीत होती है। देखें आगे क्या होता है।
इसका मतलब यह नहीं कि भारतबर्ष की आध्यात्मिक मूल परंपरा लुप्त होने के कगार पर है। भारतीय समाज में आध्यमिकता कूट कूट कर भरी है और यद्यपि हमारा युवा वर्ग इससे विरक्त दीखता है पर वय बढ़ने पर लगभग प्रत्येक भारतीय का रुझान आध्यमिकता के प्रति अनायास ही बढ़ता है ऐसा भी देखने में आता है। ज्यों ज्यों उम्र बढ़ती है और पश्चिमी चकाचौंध से मन उकताता है पूजा प्रार्थना और ध्यान में रुचि अपने आप ही बढ़ती है।
~ राजीव कृष्ण सक्सेना
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- प्रोफेसर राजीव सक्सेना
भाई जी आपने बड़े कठिन विषय को उठा कर उस पे सफल टीका की है।
जीवन यात्रा की रेलगाड़ी की सीट बढ़िया करने में ही सब लोग लगे हैं और उसका रोल मॉडल अमेरिकी जीवन है जिसके सर्वोच्च गणमान्यों की बीच कल हुआ झगड़ा उनकी खोखली नींव को दर्शाता है। दुर्भाग्यवश भारतीय गणतंत्र में बहुत सारा वहीं का कॉपी पेस्ट है।
पर मेरा प्रश्न तो जीवन के ध्येय का है।
जन्म मरण के चक्कर से छुटकारा पाना पलायन वादी लक्ष्य लगता है मुझे।
अभी तक का मेरा निर्णय है कि जीवन एक ‘खेलों का खेल’ है जो हर जीवन धारी को खेलना है और लगता है कि इसमें खिलाड़ी की हामी है।
विचारोत्तेजक लेख के लिए सादर नमन
Dr S M Jain