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पाठकों द्वारा प्रेषित कुछ कविताएं
जब कुछ नहीं था, सब कुछ था।
आराम नहीं था पर उस तक जाने की राह थी,
अच्छा घर नहीं था पर महल बनाने की चाह थी,
धन नहीं था पर समय की भरमार थी,
मशहूर नहीं था पर दोस्तों में बड़ी हस्ती थी,
जब कुछ नहीं था, सब कुछ था।
गद्देदार आसान नहीं था पर ज़मीन पर ही ठाठ थी,
बिस्तर मख़मली नहीं था पर सितारों की गोद थी,
अंधेरा बिजली से रौशनमय नहीं था पर जुगनुओं की टिमटिमाहट असीम थी,
मन बहलाये ऐसा साधन नहीं था पर दादी की कहानियाँ बेहतरीन थी,
जब कुछ नहीं था, सब कुछ था।
हवाई जहाज़ में उड़ना नहीं था पर सपनों की उड़ान आसमानी थी,
विदेशों में घूमना नहीं था पर अपने मोहल्ले में ही दुनिया पूरी थी,
मोटर कार नहीं था पर अपनी साइकिल भी नहीं किसी से कम थी,
जीवन में सफल नहीं था पर अभाव में भी ख़ुशियाँ बेहिसाब थी,
जब कुछ नहीं था, सब कुछ था।
ज़िंदगी का तज़ुर्बा नहीं था पर जीने की समझ कहीं ज़्यादा थी,
सयाना नहीं था पर बचपन में हँसी बेशुमार थी,
जीवन आसान नहीं था पर जीने में सरलता थी,
कल का प्रावधान नहीं था पर ज़िंदगी आज की सुकून थी,
जब कुछ नहीं था, सब कुछ था।
हेमंत कुमार मिश्रा
अक्टूबर 9, 2024
सपना आया
सुनो दिकु…
सपना आया तेरे लौट आने का,
हर पल खुशी में बिताता हूँ मैं।
तेरी हंसी की गूंज में,
दिल खोलकर मुस्कुराता हूँ मैं।
तेरे आने की खबर से,
दिल को गज़ब का सुकून मिला है।
बड़ी मुद्दतों के बाद,
प्रेम के मन में खुशियों का सवेरा खिला है।
सपना आया तेरा हाथ मेरे हाथ में,
उस पल की मिठास को, दिल में बसाता हूँ मैं।
तेरा साथ पाने की आस में,
हर पल खुशियों से जी जाता हूँ मैं।
तेरे लौटने की आहट ने,
दिल में अनेक उमंग भर दी।
मेरी सुनी सी पड़ी कुटिया को,
हज़ारों दीपों से झगमगाता हूँ में।
सपना आया तेरे लौट आने का,
हर पल खुशी में बिताता हूँ मैं।
तेरी हंसी की गूंज में,
दिल खोलकर मुस्कुराता हूँ मैं।
प्रेम का इंतज़ार अपनी दिकु के लिए
प्रेम ठक्कर “दिकुप्रेमी”
प्रेम ठक्कर “दिकुप्रेमी”
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विनाश प्रगति पे है
अट्टालिका की ओट में छुप गई, कुटिया छोटे निवास
बढ़ते रहे जवानी के दिन, बढ़ता रहा विलास ॥
कीड़ों की तरह भर गये मानव, छोटे पड़ गये देश
जानवरों की जान पे बन आई, ऐसा हुया विकास ॥
आसमान से पंछी गायब, विचरण करते ड्रोन
मगरमच्छ झीलों में दुबके, खा जायेगा नर पिशाच ॥
धरती को मथते रहे निस दिन, सब कुछ लिया निचोड़
सूखे ताल तल्लैया सारे, कालिख भरा आकाश ॥
सबको है किसी बात की जल्दी, चिल्ल पों कोहराम
डीज़ल का धुँवा कोहरे पे भारी, आब–ओ–हवा सत्यानाश ॥
अब सबका मोल है करता, शेयर का बाज़ार
सट्टे पे ज़ूआ सब खेलें, बस प्रॉफिट पे बिस्वास ॥
कहीं सूखे का रोना है तो, फैली कहीं मँहामारी
पर हम अपने कुएँ के मेंढक़, हमें कहाँ आभास ॥
पतन प्रलय सुनिश्चित है, कल्कि की जोहें बाट
कलज़ुग का प्रारब्ध यही है, नियति में है विनाश॥
संदीप सिंह
गंतव्य तेरी ही बाट निहारे (posted on March 1, 2024)
उपलब्धियाँ अभी कई शेष हैं ,
राही ! राहों में रूका न कर
माथे तेरे आकाश बिराजे ,
तू बादलों सामने झुका न कर
क्या भय इस बात का है
जो पहली कोशिश ही विफल रही
जुट जा तू यूँ जान लगा कर
हर गलती को कर सही
अधिक से अधिक भला क्या होगा
मनोवांछित का ही साथ छिनेगा
जीत गए तो लाख खुशी,
जो हार गए तो पाठ मिलेगा
उस प्राप्त पाठ को अपने
जीवन का आदर्श रख कर तो देख,
गंतव्य तेरी ही बाट निहारे
तू मार्ग में चलकर तो देख |
वैदेही जौहरी
बचा – खुचा कलाकार (Posted Dec 20, 2023)
ढूँढो उसके पैर अब किराणे की कतारों में
बोल रूठे उससे ,गीत चुप ! सब इशारों में
बदलती थी किताबें पहले, अब मकाँ बदल रहे हैं,
कलम आधी रह गई है बढ़ते किरायों में
ज़िंदा पल में था ज़िंदा कब, उसे याद नहीं!
वजूद के सवाल पर, बहाने हैं, जवाब नहीं !
है उसकी आँखें “घर” बरसात की नमी का
कहता है हर ज़ख्म सीख है, कोई मलाल नहीं!
है दफ़्न इंकलाबी रूह, गुलामी की खाल में इन दिनों,
निगल रही है रोज़ प्यास इस शहर को,यही तो है सियासी चाल इन दिनों,
वो पहले नोचने को, हल्का सा स्पर्श कहते थे
अब बरसती है आग तो, आग को तेज़ाब लिख तू इन दिनों
ऐ कलाकार तू सूखे पेड़ पर कागज़ी एक पत्ता टांग आ
झुकते कन्धों के तू हाथ थाम, बूढी माँ के भी कुछ काम आ,
है रथ के पहिये टूटे सारथी अभी युद्ध बाकी है
तू मेरा हाथ थाम ,अधर्म की सीमा लाँघ जा
दर्पण चंदलीय
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मेरा खज़ाना
दीप्ति घोष
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स्वप्न
कल रात चुपके से एक, नन्हा सा पंख मेरी बोझल पलकों, पर आ कर ठहर गया,
और बोला मुझसे.
मैं, चुन हुआ स्वप्न हूँ तेरा,
मैं, अधिकार हूँ तेरा ।
तेरे लिए एक सौगात लाया हूँ,
तेरे लिए एक स्वप्न लाया हूँ,
तेरा ही खास हूँ,
तेरा ही कोमल स्पर्श से भरा
एहसास हूँ।
देखो तो, वो कैसे चुपके से आया,
और बड़ी ही स्नेहशीलता से,
उसने स्वप्नों का बसेरा, ना जाने,मेरी कोरी आँखों में कब सजाया।
सुबह सवेरे जब मैं उठी,
तब माँ मुझसे बोली,
बड़ी खुश लग रही हो,
कुछ तो नई बात हुई है,
मुझे भी बतलाओ।
मैने माँ से कहा,
कुछ आशाएं जगी हैं माँ,
कुछ उम्मीदें पली हैं,
कुछ नए हौंसले बुलंद हुए हैँ मन मैं,
एक नए दिवस की शुरुआत हुई है।
मग़र मैं थोड़ी घबराई हुई हूँ माँ,
जो कोमल स्वप्न मेरे मन के आंगन में खिले हैं,
क्या वो सुन्दर फूल बन कर शाख पर खिलेंगे?
क्या मैं अपने स्वप्नों को ऊंची उड़ान दे, पाऊँगी?
तभी पंख मेरे कंधे पर आ कर मुझसे बोला,
तेरे स्वप्न तेरी पहचान बनाएँगे,
तू आगे कदम बढ़ाऐगी,
वो, तेरी, हिम्मत बंधाऐगे,
आज गर हौंसला कर लेगी तू,
तेरे स्वप्न आज उसी बुलंदी से स्वप्नलोक कहलाएंगे।
तो बस फिर क्या था,
ना देखा ताक न तावन,
और खुद से मुस्करा कर बोली मैं,
अब जो भी दिशा हो आगे,
उसे मैं खुशी से अपनाऊँगी।
यही है मेरा स्वप्न,
गंगा सा पावन,
वीना की वाणी जैसा मधुर,
और यूँ ही चलते-चलते बस,
बन गया मेरा स्वप्न मेरा सखा आजीवन।
–अंजू कपूर
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जीत के परचम
मन को लुभा रहे हैं,
ये फूल गुलमोहर के।
ये लाल -लाल लुच- लुच
डालों पे डोलते हैं।
कुछ ध्यान से सुनों तो,
शायद ये बोलते हैं।
सब लोग देखते हैं,
इनको ठहर -ठहर के।
चुन्ना ने एक अंगुली ,
उस और है उठाई।
देखा जो गुलमोहर तो,
चिन्नी भी खिलखिलाई।
मस्ती में धूल झूमे,
नीचे बिखर -बिखर के।
हँसते हैं मुस्कुराते,
ये सूर्य को चिढ़ाते।
आनंद का अंगूठा,
ये धूप को दिखाते।
हैं जीत के ये परचम,
उड़ते फहर- फहर के।
प्रभुदयाल श्रीवास्तव
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आज कल के बच्चे
आज कल के बच्चे उफ़ ,फूल कच्चे, लेकिन देखो इनकी समझ न सोचो इसमें कोईअसहज , सीख लेते हैं सब जल्दी से नयी, पुरानी, आराम से , बात करते हे सोच के इंटरनेट को गुरु मान के, सारी चीज़ो की जानकारी, कुछ अपेक्षित, कुछ बेकार, मिल जाता है सब आसानी से एक बार कंप्यूटर खोलते ही, हमसे बेहतर , निडर ज़िन्दगी में बेफिक्र, कल का भविष्य ये बच्चे, मोबाईल, अंतराजाल में डूबे, चलो, हमसे हैं बेहतर आत्मविश्वासी और निडर, देखा है उन्होंने उम्र से पहले ज़िन्दगी चाहे कंप्यूटर में ही सही
सहाना प्रसाद
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इश्क़ इश्क़ नशा है, इश्क़ सुकूँ है, इश्क़ तलब है सासों की, इश्क़ खुदा है, इश्क़ रज़ा है, इश्क़ गुज़ारिश रातों की| मरना, मिटना, मिट कर जीना, आशिक की क्या बात कहें, इश्क़ राग में बेबस राजा, बाज़ी है ये प्यादों की|| इश्क़ में देखें ऐसे मंज़र , दिल भी अब घबराता है, बात जुबां पर है लेकिन कहने से भी कतराता है | इश्क़ में देखो ना जाने क्या हाल हुआ इन सासों का, बिना बताये थम ना जाएं, ये खतरा मंडराता है|| चलो इश्क़ की राहों पर तो कांटों से बचकर रहना, आएं खुशियां या फिर हो गम हसकर के सब सह लेना| अंतहीन जो दिखलाए पथ, खून बहा दे आखों से, इश्क़ के राही हो तुम सीना चौड़ा कर कर कह देना || इश्क़ करें ये दुनिया वाले, इसमें कुछ भी पाप नही, करें बयां ये दिल के अरमां, सीने पर आघात नहीं| हम भी नैनों में अपने कुछ आस लगाए बैठे है बाज़ी दिल की है ,सपनों का दाव लगाए बैठे है। खबर किसे है किस्मत में क्या खेल रचाया जाएगा नशा, सुकून का पता नही पर दिल दुख कर रह जाएगा।। करें बयां ये दिल के अरमां, सीने पर आघात नहीं| हम भी नैनों में अपने कुछ आस लगाए बैठे है बाज़ी दिल की है ,सपनों का दाव लगाए बैठे है। खबर किसे है किस्मत में क्या खेल रचाया जाएगा नशा, सुकून का पता नही पर दिल दुख कर रह जाएगा।। रोहित गुप्ता (Feb 12, 2023)
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एक खालीपन सा है
अंधेरे में सन्नाटो में चुप्पी से घिरी बातों में एक खालीपन सा है।। जज्बातों की उलझनों में अपनों की सुलझनों में एक खालीपन सा है।। टूटे से ख्वाबों में भटके हुए एहसासों में एक खालीपन सा है।। रूह की भटकन में रिश्तों की अटकन में एक खालीपन सा है।। सड़क पर बिलखती इंसानियत में गरीबी में डूबे बचपन में एक खालीपन सा है।। खुद से खुद की अजीब सी जंग में दिल और दिमाग की इस उमंग में एक खालीपन सा है।। दौलत शोहरत के लिए भागती दुनिया में बिकते हुए सच और झूठ में एक खोखलापन सा है.... एक खालीपन सा है।। प्रीतिका शुक्ला 'अखिला' (Feb 10, 2023)
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_________________________________________ बता देंगे बता दें वतन को अभी ये लाल जिन्दा है, हिला देगा धरा को गर घायल परिन्दा है। हुआ कश्मीर मे जो, उसे फिर होने नहीं देंगे, बढ़े जो हाथ आंचल तरफ तो सिर ही उड़ा देंगे। मैं तेरा लाल हूं मां, मैं तुझको यह बता दूंगा। तेरे चरणों में कतरा, खून का मैं बहा दूंगा। चुनर धानी पर तेरी मां दाग लगने नहीं दूंगा । तिरंगा ओढ कर आऊंगा लेकिन झुकने नहीं दूंगा। पिलाया दूध जो तूने उसी का कर्ज चुकाऐंगे, देकर जवानी हम अपनी तेरा मान बढ़ाएंगे। बहुत हुए समझौते अब हम एक ना मानेंगे, अब सुनेंगे ना हम इनकी, सीधे घुस के मारेंगे। तेरी अमृत की धारा से,विजय तिलक लगाएंगे। विक्रम और मनोज को हम हर घर मे लाऐंगे। तिरंगा है आन मेरी,तिरंगा शान है मेरी। इसे हर दिल का अरमान हम बनाएंगे
प्रीतिका शुक्ला ‘अखिला’ (Jan 21, 2023)
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दिया जल रहा था
दूर अन्धेरे में एक दिया जल रहा था सब कुछ था रुका मानो वही चल रहा था लेहरो को चीर वो आगे बढ़ रहा था अन्धेरे में बस वही चमक रहा था दूर अन्धेरे में एक दिया जल रहा था उस नदी के बहाव में बस वही दिख रहा था हर ग़म हर दुःख से परे वो बढ़ रहा था दूर अन्धेरे में एक दिया जल रहा था ना अति भावुक और ना अति उत्तेजित वो शांत सा बढ़ रहा था मानो उसे लक्ष्य था पता उसके लिए बढ़ रहा था दूर अन्धेरे में एक दिया जल रहा था हवाएँ थीं तेज पर वो नहीं बुझ रहा था अपने गंतवय को पाने के लिए हर मुसीबत से लड़ रहा था दूर अन्धेरे में एक दिया जल रहा था पर उसे ना था मालूम क़ी हर वक़्त वो मर रहा था द्रव्य उसके जीवन का कमतर हो रहा था दूर अन्धेरे में एक दिया जल रहा था अब वो प्रकृति से नहीं खुद से लड़ रहा था लौ हो रही थी कम उसका अंत हो रहा था बहुत लड़ा खुद से लेकिन अंत में सिर्फ़ उसके ऊपर धुआँ उड़ रहा था दूर अन्धेरे में एक दिया जल रहा था डॉ शिवम
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सर्टिफिकेट गुड का
माँ उठती है हर सुबह सूरज से भी पहले सुनती हैं वो हर पक्षी की पहली मीठी बोली, देखती है वो आसमान की लालिमा उगते, पर न जाने क्यों खुद को न सवारती वो कभी, घर के किनारों को चमकाना है उसका श्रृंगार, माँ बोलती, 'तभी तो कभी मिलेगा सर्टिफिकेट गुड का' आखों को मसलते हुए मै उठती हूँ रोज़ देर सवेर माँ माथे पर हाथ रख बोलती, 'अभी न हुई ज़्यादा सुबह सो जाओ थोड़ी देर और, पढ़ा है तुमने देर रात तक' चादर तानकर, आँखे बंद करके दोबारा, मै सोचती; फिर माँ क्यों उठ जाती है सुबह के सुबह होने से पहले ही, माँ बोलती, 'तभी तो कभी मिलेगा सर्टिफिकेट गुड का' घर के जन नाश्ता मांगते दस बजे, पर न कभी कहते माँ से, क्यों खाती वो खुद ही बनाया खाना ठंडा, बेस्वाद, बिन शिकायत, क्यों न कभी माँ पकाती खुद की पसंद के पकवान, क्यों न कभी कोई ये पूछता उससे, आखिर क्यों है माँ अदृश्य, 'दिखने जो लग जाउंगी मै सबको, कीमत रह जाएगी और भी कम', माँ बोलती, 'तभी तो कभी मिलेगा सर्टिफिकेट गुड का' अदृश्य, अनसुनी, अनकही है मां की पहचान, माँ है बस माँ, कहती काफी है उसके लिए इतना ही - माँ, पत्नी, बहु, कभी रही बेटी भी माँ की न कोई शिकायत, न कोई मांग, न ही उसके है कोई सपने माँ बताती चित्रकारी करती थी वो युवापन में, पढ़ती भी थी अच्छा, उम्र जब बीती थोड़ी, आ गयी पराये घर को, पीछे छोड़ सारे सपने, माँ बोलती, 'सोचा था तभी तो कभी मिलेगा सर्टिफिकेट गुड का, पर अभी तक न मिला सर्टिफिकेट गुड का शायद कभी तो मिलेगा सर्टिफिकेट गुड का कभी तो, कही तो, कोई तो देगा माँ को,
एक सर्टिफिकेट गुड का’
शुभांगी (Dec 26, 2022)
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- प्रोफेसर राजीव सक्सेना
तितलियाँ
डाली- डाली पे कली, बैठी गुल के पास |
रंग बिरंगी तितलियाँ, उड़े खुले आकाश ||
नीले अम्बर में खिली, उॅंजली- उॅंजली धूप |
सहज- सहज समीर चले, भू का खिलता रूप ||
वसुंधरा पे धुंध की, दूर तक सजी सेज |
शीतल पवने जब चली, शीत हो गई तेज ||
आँचल से पिघलती हुई, बर्फ सुनाती गीत |
रैन शीत दिन गुनगुने, ताप फिर गई बीत ||
अम्बर से बूदे गिरी, महकने लगे पात |
धीमे- धीमे दिन ढ़ले, आई शीतल रात ||
निहाल सिंह (Dec 12, 2022)
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बाल कविता
तारा तारा, छोटा तारा
कितना सुन्दर, कितना न्यारा
दूर गगन में रहता है वो
बच्चों का है कितना प्यारा
छोटे छोटे हाथों से, बच्चे इसको छूना चाहें
पास बुलाके घर में इसको, मुट्ठी में ले जाना चाहें
ये मगर इठलाता रहता, हँसता रहता, गाता रहता
बच्चे फिर सो जाते थक कर
अगली रात फिर आता तारा
तारा तारा, छोटा तारा
कितना सुन्दर, कितना न्यारा
~कुमार ऋषि (Dec 3, 2022)
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बहुत तड़पाती है
सुबह की पहली किरण ,
तुमसे ना मिलने की चुभन ,
दिल मे लगी वो अगन ,
बहुत तड़पाती है , बहुत तड़पाती है
शाम आती है बाहें फैलाये
हवा कुछ कहना चाहे पर कुछ कह ना पाए
बस एक चेहरा याद दिलाती है
बहुत तड़पाती है , बहुत तड़पाती है
नितिन सेठी (Nov 11, 2022)
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