विजय भेरी – मैथिली शरण गुप्त

Here is an old classic poem by Rashtra-Kavi Mathilisharan Gupt, praising the great and ancient motherland India. Rajiv Krishna Saxena

विजय भेरी

जीवन रण में फिर बजे विजय की भेरी।
भारत फिर भी हो सफल साधना तेरी।

आत्मा का अक्षय भाव जगाया तू ने,
इस भाँति मृत्यु भय मार भगाया तू ने।
है पुनर्जन्म का पता लगाया तू ने,
किस ज्ञेय तत्त्व का गीत न गाया तू ने।
चिरकाल चित्त से रही चेतना चेरी।
भारत फिर भी हो सफल साधना तेरी।

तू ने अनेक में एक भाव उपजाया,
सीमा में रहकर भी असीम को पाया।
उस परा प्रकृति से पुरुष मिलाप कराया,
पाकर यों परमानन्द मनाई माया।
पाती है तुझ में प्रकृति पूर्णता मेरी।
भारत फिर भी हो सफल साधना तेरी।

शक, हूण, यवन इत्यादि कहाँ है अब वे,
आये जो तुझ में कौन कहे, कब कब वे।
तू मिला न उनमें, मिले तुझी में सब वे,
रख सके तुझे, दे गए आप को जब वे।
अपनाया सब को पीठ न तूने फेरी।
भारत फिर भी हो सफल साधना तेरी।

गिरि, मंदिर, उपवन, विपिन, तपोवन तुझ में,
द्रुम, गुल्म, लता, फल, फूल, धान्य धन तुझ में
निर्झर, नद, नदियाँ, सिंधु, सुशोभन तुझ में,
स्वर्णातप, सित चंद्रिका, श्याम घन  तुझ में
तेरी धरती में धातु–रत्न की ढेरी,
भारत फिर भी हो सफल साधना तेरी।

∼ मैथिली शरण गुप्त (राष्ट्र कवि)

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