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आ गए तुम, द्वार खुला है अंदर आओ...!

आ गए तुम? – निधि सक्सेना 

A really moving poem by the Sahitya Acadamy Award winning poetess Maha Shweta Devi, telling us the essential rules for going through life. – Rajiv Krishna Saxena

आ गए तुम?

आ गए तुम,
द्वार खुला है अंदर आओ…!

पर तनिक ठहरो,
ड्योढ़ी पर पड़े पाएदान पर
अपना अहं झाड़ आना…!

मधुमालती लिपटी हुई है मुंडेर से,
अपनी नाराज़गी वहीं
उँडेल आना…!

तुलसी के क्यारे में,
मन की चटकन चढ़ा आना…!

अपनी व्यस्तताएँ,
बाहर खूँटी पर ही टाँग आना।
जूतों संग हर नकारात्मकता
उतार आना…!

 

बाहर किलोलते बच्चों से
थोड़ी शरारत माँग लाना…!

वो गुलाब के गमले में मुस्कान लगी है,
तोड़ कर पहन आना…!

लाओ अपनी उलझनें
मुझे थमा दो,
तुम्हारी थकान पर
मनुहारों का पंखा झुला दूँ…!

देखो शाम बिछाई है मैंने,
सूरज क्षितिज पर बाँधा है,
लाली छिड़की है नभ पर…!

प्रेम और विश्वास की मद्धम आँच पर
चाय चढ़ाई है,
घूँट घूँट पीना,
सुनो, इतना मुश्किल भी नहीं है जीना…!

~ निधि सक्सेना

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3 comments

  1. This is not Mahasheweta Devi’ poem. She wasn’t a poetess. This is Nidhi Saksena’poem. I am a writer and poetess and now afarid to see how one’s creation is getting other person’s name.

  2. अति सुंदर..काश आज भी घर घर में यही संस्कार नजर आते. घर का और परिवार का महत्व ..जीवन आनंददायी बना देता है

  3. अमृता शर्मा

    बहुत सुंदर आज इसकी बड़ी जरूरत है संस्कार नाम की कोई बात नहीं है। मन को छू गई।

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