Who wants to sleep on the footpath? Yet out of sheer helplessness, millions do. On a hot summer night, how uncomfortable and frustrating it should be to sleep on stones and gravel. This precious poem by Kaifi Azmi captures the frustration and its essence. It traces human evolution from animals to civilized societies. But after all this evolution, labourers who toil in the day and make beautiful palaces are forced to sleep on the footpath in night. Only if some magic happened and a window bringing in cool breeze, opened in the stifling wall… a metaphor for the cruel and heartless society… Rajiv Krishna Saxena
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है‚
आज की रात न फुटपााथ पे नींद आएगी‚
सब उठो‚ मैं भी उठूं‚ तुम भी उठो‚ तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी।
ये जमीं तब भी निगल लेने को आमादा थी‚
पांव जब टूटती शाखों से उतारे हम ने‚
इन मकानो को खबर है‚ न मकीनों को खबर
उन दिनों की जो गुफाओं में गुजारे हम ने‚
हाथ ढलते गये सांचों में तो थकते कैसे‚
नक्श के बाद नये नक्श निखारे हम ने‚
की ये दीवार बुलंद‚ और बुलंद‚ और बुलंद
बामो–ओ–दर और ज़रा और संवारे हम ने‚
आंधियां तोड़ लिया करती थीं शामों की लौएं‚
जड़ दिये इस लिये बिजली के सितारे हम ने‚
बन गया कस्र तो पहरे पे कोई बैठ गया‚
सो रहे खाक पे हम शोरिश–ए–ताामीर लिये‚
अपनी नस–नस में लिये मेहनत–ए–पैहम की थकन–
बंद आंखों में इसी कस्र की तस्वीर लिये‚
दिन पिघलता है इसी तरह सरों पर अब तक‚
रात आंखों में खटकती है स्याह तीर लिये।
आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है‚
आज की रात न फुटपााथ पे नींद आएगी‚
सब उठो‚ मैं भी उठूं‚ तुम भी उठो‚ तुम भी उठो
कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी।
~ कैफ़ी आज़मी
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