अच्छा नहीं लगता – संतोष यादव ‘अर्श’

Santosh ‘Arsh’ sent me his poetry book entitled “Kya Pata”. I greatly enjoyed reading his work which reminded me of Dushyant Kumar. Here is a lovely poem showing the general feeling of dis-connect in postmodern world. Rajiv Krishna Saxena

अच्छा नहीं लगता

ये उड़ती रेत का सूखा समाँ अच्छा नहीं लगता
मुझे मेरे खुदा अब ये जहाँ अच्छा नहीं लगता।

बहुत खुश था तेरे घर पे‚ बहुत दिन बाद आया था
वहाँ से आ गया हूँ तो यहाँ अच्छा नहीं लगता।

वो रो–रो के ये कहता है मुहल्ले भर के लोगों से
यहाँ से तू गया है तो यहाँ अच्छा नहीं लगता।

बहुत लगती थी पहले‚ अब तबीयत ही नहीं लगती
वहाँ सब कुछ है लेकिन अब वहाँ अच्छा नहीं लगता।

इसे रख दे‚ उठा ले हाथ में फूलों का इक गुच्छा
तेरे हाथों में ये तीरोकमाँ अच्छा नहीं लगता।

अगर हो तीसरी दुनियाँ‚ बुला लेना मुझे पहले
मेरे अल्लाह मुझे दोनों जहाँ अच्छा नहीं लगता।

ये हँसते मुस्कुराते लोग बेशक प्यारे लगते हैं
खिले चेहरे मुखातिब हों कहाँ अच्छा नहीं लगता।

∼ संतोष यादव ‘अर्श’

लिंक्स:

Check Also

Handful important events are the essence of human life!

इक पल है नैनों से नैनों के मिलने का – राजीव कृष्ण सक्सेना

If we look back at our lives we find that there were some moments of …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *