Here is a reflection on the path of life. We find friends and lose them. But we must carry on… There is no alternative. A lovely poem by Shivmangal Singh Suman. – Rajiv Krishna Saxena
बात बात में
इस जीवन में बैठे ठाले ऐसे क्षण भी आ जाते हैं
जब हम अपने से ही अपनी–बीती कहने लग जाते हैं।
तन खोया–खोया–सा लगता‚ मन उर्वर–सा हो जाता है
कुछ खोया–सा मिल जाता है‚ कुछ मिला हुआ खो जाता है।
लगता‚ सुख दुख की स्मृतियों के कुछ बिखरे तार बुना डालूं
यों ही सूने में अंतर के कुछ भाव–अभाव सुना डालूं।
कवि की अपनी सीमाएं हैं कहता जितना कह पाता है
कितना भी कह डाले‚ लेकिन अनकहा अधिक रह जाता है।
यों हीं चलते–फिरते मन में बेचैनी सी क्यों उठती है?
बसती बस्ती के बीच सदा‚ सपनों की दुनियां लुटती है
जो भी आया था जीवन में‚ यदि चला गया तो रोना क्या?
ढलती दुनिया के दानों में‚ सुविधा के तार पिरोना क्या?
जीवन में काम हजारों हैं‚ मन रम जाए तो क्या कहना!
दौड़ धूप के बीच एक–क्षण थम जाए तो क्या कहना!
कुछ खाली खाली तो होगा जिसमें निश्वास समाया था
उससे ही सारा झगड़ा है जिसने विश्वास चुराया था।
फिर भी सूनापन साथ रहा‚ तो गति दूनी करनी होगी
सांचे के तीव्र विवत्र्तन से‚ मन की पूंजी भरनी होगी।
जो भी अभाव भरना होगा‚ चलते चलते भर जाएगा
पथ में गुनने बैठूंगा तो‚ जीना दूभर हो जाएगा।
~ शिवमंगल सिंह ‘सुमन’
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