“Haril” is a bird that always keep clutching a wooden twig and never leaves it. This is a metaphore of strong attachments we develop in the life to worldly wealth and events. Worldly events however are beyond our control and we invariably age as we experience the life. The wealth we accumulate but do not use is worthless and is left behind. All that wealth cannot buy us a single extra breath. A lovely poem of Dr. Buddhinath Mishra. Rajiv Krishna Saxena
बैरागी भैरव
बहकावे में मत रह हारिल
एक बात तू गाँठ बाँध ले
केवल तू ईश्वर है
बाकी सब नश्वर है
ये तेरी इन्द्रियाँ, दृश्य
सुख–दुख के परदे
उठते–गिरते सदा रहेंगे
तेरे आगे
मुक्त साँड बनने से पहले
लाल लोह–मुद्रा से
वृष जाएँगे दागे
भटकावे में मत रह हारिल
पकड़े रह अपनी लकड़ी को
यही बताएगी अब तेरी
दिशा किधर है।
ये जो तू है, क्या वैसा ही है
जैसा तू बचपन में था?
कहाँ गया मदमाता यौवन
जो कस्तूरी की खुशबू था?
दुनियाँ चलती हुई ट्रेन है
जिसमें बैठा देख रहा तू
नगर–डगर, सागर, गिरि–कानन
छूट रहे हैं एक–एक कर।
कोई फ़र्क नहीं तेरे
इस ब्लैक बॉक्स में
भरा हुआ पत्थर है
या हीरा–कंचन है।
जितना तू उपयोग कर रहा
मायावृत जग में निर्मम हो
उतना ही बस तेरा धन है।
एक साँस, बस एक साँस ही
तू खरीद ले
वसुधा का सारा वैभव
बदले में देकर!
∼ डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र
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