Monotony of life hits every one eventually. Here is a lovely poem depicting just that. Office goers would especially identify with the sentiments – Rajiv Krishna Saxena
बीते दिन वर्ष
बीते दिन वर्ष!
रोज जन्म लेती‚ शंकाओं के रास्ते
घर से दफ्तर की दूरी को नापते
बीते दिन दिन करके‚ वर्ष कई वर्ष!
आंखों को पथराती तारकोल की सड़कें‚
बांध गई खंडित गति थके हुए पाँवों में‚
अर्थ भरे प्रश्न उगे माथे की शिकनों पर‚
हर उत्तर डूब गया खोखली उछासों में।
दीमक की चिंताएँ‚ चाट गई जर्जर तन‚
बैठा दाइत्वों की देहरी पर नील गगन‚
वेतन के दिन का पर्याय हुआ हर्ष।’
सरकारी पत्रों के संदर्भों सी साँसें‚
छुट्टी की अर्जी सा सुख रीते जीवन में‚
मेजों पर मुड़ी तुड़ी फाइल से बिखरे हम‚
अफसर की घंटी से आकस्मिक भय मन में।
आगत की बुझी हुई भोरों से ऊबे हम‚
वर्तमान की टूटी संध्या से डूबे हम‚
हाटों में घूम रहे‚ ले खाली पर्स।
बीते दिन दिन करके‚ वर्ष कई वर्ष!
~ विद्यासागर वर्मा
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