A middle-aged son Guddan, who could not reach at the time of mother’s death, writes a letter to her. It is so personal, private and emotional that it moves all readers. This is an excerpt from the poem of the well known poet Ashok Vajpai Ji. Rjiv Krishna Saxena
दिवंगत मां के नाम पत्र
व्यर्थ के कामकाज में उलझे होने से देर हो गई थी
और मैं अंतिम क्षण तुम्हारे पास नहीं पहुँच पाया था!
तुम्हें पता नहीं उस क्षण सब कुछ से विदा लेते
मुझ अनुपस्थित से भी विदा लेना याद रहा कि नहीं
जीवन ने बहुत अपमान दिया था पर कैंसर से मृत्यु ने भी
पता नहीं क्यों तुम्हारी लाज नहीं रखी थी!
यहाँ तुम नहीं हो : यह परदेस है
पर लगता है यही गोपाल गंज है, बकौली–कठचंदनवाला
और यहाँ का कुआँ हमारे घर के अंदर है
जिसके पास हम सब नहाते थे
यों तो पानी से, पर तुम्हारी सजल लाड़ प्यार से…
तुम्हारे बाद ही वह किराए का मकान खाली कर देना पड़ा
और वह मुहल्ला हमसे हमेशा के लिये छूट गया
उसके लोग, उसकी गंध, और उसके अँधेरे–उजाले
सब जाते रहे
साथ ही हम सबका लड़कपन–बचपन–तुम्हारा जीवन
हमारे बड़े होने पर झरता तुम्हारा हर सिंगार
यहाँ ईश्वर की इस सख्त अभेद्य सी प्राचीर में
कहीं से खुल जाता है तुम्हारा भंडार और पूजाघर
जहाँ अनाजों, दालों आदि के भरे कनस्तरों के पास
एक आले में लटके हैं तुम्हारे भगवान
और रामचरिमानस की पुरानी पड़ती प्रति
कुछ फूल और चावल के दाने
खड़ी बोली के जन्म के कई सदियों पहले
तुम्हारी प्रार्थना की तरह गुनगुनाना
यहाँ के भय में गूँज रहा है तुम्हारा मातृसमय
एक बूढ़े मठ में अकेला बैठा मैं एक अधेड़ कवि
तुम्हारा बड़ा बेटा
जिसकी अधेड़ आयु में तुम्हारी आयु जुड़ रही है
जिसके समय में तुम्हारा समय
रक्त में तुम्हारा उत्ताप
जिसकी आत्मा के अंधेरे में तुम्हारा वत्सल उजाला
यह दूर पहाड़ियों तक पूजाघर की घाटियों का नाद
मैं इस सबको तुम्हारा नाम देता हूँ दिदिया…
पितरों के जनाकीर्ण पड़ोस में
वही अपनी ढीली पैंट को संभालता
मैं भी हूँ गुड्डन
जैसे यहाँ इस असंभव सुनसान में तुम हो
इस कविता, इन शब्दों, इस याद की तरह
दिदिया…
∼ अशोक वाजपेयी
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