Frustrations in life keep accumulating. We all feel that system should change but are not sure how. Here is a popular poem of Dushyant Kumar Ji on this theme. – Rajiv Krishna Saxena
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चहिए
हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चहिए‚
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिये।
आज यह दीवार‚ परदों की तरह हिलने लगी‚
शर्त लेकिन थी कि यह बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर‚ हर गली में‚ हर नगर‚ हर गांव में‚
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं‚
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही‚
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।
~ दुष्यंत कुमार
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