जब जब सिर उठाया – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

जब जब सिर उठाया – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

Our creations in life bind us and restrict us. That is because we become attached to what we create, and any attachments we form bind us and in a way become an obstacle in our growth and progress. Here is a lovely poem by Sarveshwar Dayal Saxena – Rajiv Krishna Saxena

जब जब सिर उठाया

जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।

मस्तक पर लगी चोट,
मन में उठी कचोट,
अपनी ही भूल पर मैं,
बार-बार पछताया।

जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।

दरवाजे घट गए या
मैं ही बडा हो गया,
दर्द के क्षणों में कुछ
समझ नहीं पाया।

जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।

“शीश झुका आओ” बोला
बाहर का आसमान,
“शीश झुका आओ” बोली
भीतर की दीवारें,
दोनों ने ही मुझे
छोटा करना चाहा,
बुरा किया मैंने जो
यह घर बनाया।

जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।

∼ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

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