In ancient times, people moved by religious passion worked hard to carve out beautiful statues, temples and painted in caves. In this age of post-modernism, appreciation for such kind of passion is gradually getting lost. But what about this modern, senseless and destructive passion for wars, guns and building war related infrastructure? How do we justify that? Well known poet Sarveshwar Dayal Saxena asks this highly relevant question in this poem. Rajiv Krishna Saxena
कलाकार और सिपाही
वे तो पागल थे
जो सत्य, शिव, सुंदर की खोज में
अपने–अपने सपने लिये
नदियों, पहाड़ों, बियाबानों, सुनसानों मे
फटे–हाल भूखे प्यासे,
टकराते फिरते थे,
अपने से जूझते थे,
आत्मा की आज्ञा पर
मानवता के लिये,
शिलाएँ, चट्टानें, पर्वत काट–काट कर
मूर्तियाँ, मन्दिर, और गुफाएँ बनाते थे।
किंतु ऐ दोस्त!
इनको मैं क्या कहूँ,
जो मौत की खोज में
अपनी–अपनी बन्दूकें, मशीनगनें लिये हुए
नदियों, पहाड़ों, बियाबानों, सुनसानों मे
फटे–हाल भूखे प्यासे,
टकराते फिरते हैं,
दूसरों की आज्ञा पर,
चंद पैसों के वास्ते,
शिलाएँ, चट्टानें, पर्वत काट–काट कर
रसद, हथियार, एंबूलेंस, मुर्दागाड़ियों के लिये
सड़कें बनाते हैं!
वे तो पागल थे
पर इनको मैं क्या कहूँ!
∼ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
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