कल्पना और जिंदगी – वीरेंद्र मिश्र

कल्पना और जिंदगी – वीरेंद्र मिश्र

As a man matures in thinking, his past simple beliefs slowly get shattered and the real bitter truth about life stares directly into his eyes. It is like the shattering of belief in Santa Clause in children. Sooner or later the real truth dawns. Here is a famous poem of Virendra Mishra on this theme. Rajiv Krishna Saxena

कल्पना और जिंदगी

दूर होती जा रही है कल्पना
पास आती जा रही है ज़िंदगी

चाँद तो आकाश में है तैरता
स्वप्न के मृगजाल में है घेरता
उठ रहा तूफान सागर में यहाँ
डगमगाती जा रही है ज़िंदगी

साथ में लेकर प्रलय की चाँदनी
चीखते हो तुम कला की रागिनी
दे रहा धरना यहाँ संघर्ष है
तिलमिलाती जा रही है ज़िंदगी

स्वप्न से मेरा कभी संबंध था
बात यह बीती कि जब मैं मंद था
आज तो गतिमय‚ मुझे कटुसत्य के
पास लाती जा रही है ज़िंदगी

तुम अँधेरे को उजाला मानते
होलिका को दीपमाला मानते
पर यहाँ नवयुग सवेरा हो रहा
जगमगाती जा रही है ज़िंदगी

आज आशा ही नहीं‚ विश्वास भी
आज धरती ही नहीं‚ आकाश भी
छेड़ते संगीत नव निर्माण का
गुनगुनाती जा रही है ज़िंदगी

भ्रम नहीं यह टूटती जंजीर है
और ही भूगोल की तस्वीर है
रेशमी अन्याय की अर्थी लिये
मुस्कुराती जा रही है ज़िंदगी

चक्रव्यूही पर्वतों के गाँव में
दूर काले बादलों की छाँव में
बीहड़ों में मौत को ललकारती
पथ बनाती जा रही है ज़िंदगी

दूर होती जा रही है कल्पना
पास आती जा रही है ज़िंदगी

∼ वीरेंद्र मिश्र

लिंक्स:

 

Check Also

Haarr men ya jeet men, Kinchit nahi bhaibheet main

क्या हार में क्या जीत में – शिव मंगल सिंह सुमन

This poem of Shiv Magal Singh Suman was made popular by our past Prime Minister …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *