खेल – निदा फ़ाज़ली

खेल – निदा फ़ाज़ली

Irrespective of our races and religions, we all arise from mother earth and dissolve into her. Who arises from the dissolved ingredients of who, no one can say. Here is a wonderful poem saying just that. External attributes that we wear in our life are artificial where in fact we all are the same. Rajiv Krishna Saxena

खेल

आओ
कहीं से थोड़ी–सी मिट्टी लाएँ
मिट्टी को बादल में गूँधे
चाक चलाएँ
नए–नए आकार बनाएँ

किसी के सर पे चुटिया रख दें
माथे ऊपर तिलक सजाएँ…
किसी के छोटे से चेहरे पर
मोटी सी दाढ़ी फैलाएँ

कुछ दिन इन से दिल बहलाएँ
और यह जब मैले हो जाएँ
दाढ़ी चोटी तिलक सभी को
तोड़–फोड़ के गड–मड कर दें
मिली–जुली यह मिट्टी फिर से
अलग अलग साँचों में भर दें

– चाक चलाएँ
नए–नए आकार बनाएँ
दाढ़ी में चोटी लहराए
चोटी में दाढ़ी छुप जाए
किसमें कितना कौन छिपा है
कौन बताए?

∼ निदा फ़ाज़ली

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