It is amazing how some people derive pleasure from sabotaging or spoiling things for others without any reason. But when the wisdom dawns, we tend to take even such people in stride and forgive them. All human beings are after all creatures of circumstances and they do what they must do. Narendra Deepak blesses adversaries too in this lovely poem. Rajiv Krishna Saxena
मैं सबको आशीश कहूंगा
मेरे पथ पर शूल बिछाकर दूर खड़े मुस्काने वाले
दाता ने संबंधी पूछे पहला नाम तुम्हारा लूंगा।
आंसू आहें और कराहें
ये सब मेरे अपने ही हैं
चांदी मेरा मोल लगाए
शुभचिंतक ये सपने ही हैं
मेरी असफलता की चर्चा घर–घर तक पहुंचाने वाले
वरमाला यदि हाथ लगी तो इसका श्रेय तुम्ही को दूंगा।
सिर्फ उन्हीं का साथी हूं मैं
जिनकी उम्र सिसकते गुज़री
इसीलिये बस अंधियारे से
मेरी बहुत दोस्ती गहरी
मेरे जीवित अरमानों पर हँस–हँस कफन उढ़ाने वाले
सिर्फ तुम्हारा क़र्ज चुकाने एक जनम मैं और जियूंगा।
मैंने चरण धरे जिस पथ पर
वही डगर बदनाम हो गयी
मंजिल का संकेत मिला तो
बीच राह में शाम हो गई
जनम जनम के साथी बन कर मुझसे नज़र चुराने वाले
चाहे जितना श्राप मुझे दो मैं सबको आशीश कहूंगा।
~ नरेंद्र दीपक
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