परमगुरु – अनामिका

परमगुरु – अनामिका

Children have clear hearts. They respond to love and have no special motives in striking up friendships. Then at a certain age, that simplicity of heart gives way to cleverness. This lovely poem describes this transition and mourns the loss of that simple and selfless phase of life. Rajiv Krishna Saxena.

परमगुरु

मैं नहीं जानती कि सम्य मेरी आँखों का था
या मेरे भौचक्के चेहरे का,
लेकिन सरकारी स्कूल की
उस तीसरी पाँत की मेरी कुर्सी पर
तेज प्रकाल से खुदा था– ‘उल्लू’
मरी हुई लाज से
कभी हाथ उस पर रखती, कभी कॉपी
लेकिन पट्ठा ऐसा था–
छुपने का नाम ही नहीं लेता था !

धीरे–धीरे हुआ ऐसा–
खुद गया मेरा वह उपानम
मेरे वज़ूद पर !
और मैंने उसको जगह दे दी–
कोटर में– अपने ही भीतर !
तब से मैंने जो भी किया
उसमे उस परमगुरु का
इशारा भी शामिल था !

फिर एक दिन जाने क्या हुआ–
मेरे भीतर का वह उल्लू उड़ गया,
और वहाँ रहने चला आया
सावधान पंजों वाला एक काला बिलौटा !

एक उमर जीने के बाद मैंने गौर किया
उल्लूपंथी वाले दिन कितने अच्छे थे !
हमारे अँधेरे समय में
उल्लू की आँख भर ही तो बची है–
अगर बची है कहीं रोशनी,
इसीलिये उल्लू बनने में
नहीं होनी चाहिये शर्मिन्दगी !
कैसे हम भूल जाएँ आखिर
कि उल्लू बनने की प्रक्रिया
में शामिल है आदमी का
आदमी पर भरोसा!

∼ अनामिका

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