फूले फूल बबूल – नरेश सक्सेना

फूले फूल बबूल – नरेश सक्सेना

Fast changing social system and increasing complexity of modern life have bewildered the modern man. This feeling is reflected in contemporary modern poetry too. Here is a lovely poem expressing the rather undefined sense of being lost. The feeling that we don’t even know what we actually want in life… Apprehensions of the unknown grow as depicted in the first two lines of second stanza. Rajiv Krishna Saxena

फूले फूल बबूल

फूले फूल बबूल कौन सुख‚ अनफूले कचनार।

वही शाम पीले पत्तों की
गुमसुम और उदास
वही रोज का मन का कुछ —
खो जाने का अहसास
टाँग रही है मन को एक नुकीले खालीपन से
बहुत दूर चिड़ियों की कोई उड़ती हुई कतार।
फूले फूल बबूल कौन सुख‚ अनफूले कचनार।

जाने कैसी–कैसी बातें
सुना रहे सन्नाटे
सुन कर सचमुच अंग–अंग में
उग आते हैं काँटे
बदहवास‚ गिरती–पड़ती सी‚ लगीं दौड़ते मन में —
अजब–अजब विकृतिया अपने वस्त्र उतार–उतार।
फूले फूल बबूल कौन सुख – अनफूले कचनार।

∼ नरेश सक्सेना

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