साबुत आईने – धर्मवीर भारती

Indian mind considers world as “Maya” or a sort of illusion. Once you realize this and consider yourself as an illusion living in the world of illusions, existential dilemma sets in and one feels utterly trapped and helpless. This feeling of being trapped is beautifully depicted here by Bharai Ji. Mirrors here denote illusions. I am tempted to translate last few stanzas in English.

Could someone cut this knot of pain
Call out from across the mirrored lane
Unbearable is this absurd unending walk
Reaching the same spot again and again
Will an exit never be at hand ?
Am I destined to only meet this end ?
Lost in these maze of mirrors
Crucified, hanging from the frames

Rajiv Krishna Saxena

साबुत आईने

इस डगर पर मोड़ सारे तोड़,
ले चूका कितने अपरिचित मोड़।

पर मुझे लगता रहा हर बार,
कर रहा हूँ आइनों को पार।

दर्पणों में चल रहा हूँ मै,
चौखटों को छल रहा हूँ मै।

सामने लेकिन मिली हर बार,
फिर वही दर्पण मढ़ी दीवार।

फिर वही झूठे झरोके द्वार,
वही मंगल चिन्ह वंदनवार।

किन्तु अंकित भीत पर, बस रंग से,
अनगिनित प्रतिबिंब हँसते व्यंग से।

फिर वही हारे कदम की होड़,
फिर वही झूठे अपरिचित मोड़।

लौटकर फिर लौटकर आना वही,
किन्तु इनसे छूट भी पाना नही।

टूट सकता, टूट सकता काश,
यह अजब–सा दर्पणों का पाश।

दर्द की यह गाँठ कोई खोलता,
दर्पणों के पार कुछ तो बोलता।

यह निरर्थकता सही जाती नही,
लौटकर, फिर लौटकर आना वहीँ।

राह मै कोई न क्या रच पाउँगा,
अंत में क्या मै यही बच जाऊँगा।

बिंब आइनों में कुछ भटका हुआ,
चौखटों के कास पर लटका हुआ।

~ धर्मवीर भारती

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