In youth we remain so busy in making careers, building houses, raising children, living a life etc. There is no spare time. Later in life when children have grown and left and career considerations dwindled, there is suddenly nothing much left to do and that motivation to “achieve” dwindles. A strange kind of boredom may creep upon and grab a person. Ajit Kumar’s poem describes these feelings beautifully. Rajiv Krishna Saxena
सूरज डूब चुका है
सूरज डूब चुका है‚
मेरा मन दुनिया से ऊब चुका है।
सुबह उषा किरणों ने मुझको यों दुलराया‚
जैसे मेरा तन उनके मन को हो भाया‚
शाम हुई तो फेरीं सबने अपनी बाहें‚
खत्म हुई दिन भर की मेरी सारी चाहें‚
धरती पर फैला अंधियारा‚
रंग बिरंगी आभावाला सूरज डूब चुका है‚
मेरा मन दुनिया से ऊब चुका है।
फूलों ने अपनी मुस्कान बिखेरी भू पर‚
दिया मुझे खुश रहने का संदेश निरंतर‚
ज़िन्दा रहने की साधें मुझ तक भी आयीं‚
शाम हुई सरसिज की पाँखों क्या मुरझायीं–
मन का सारा मिटा उजाला‚
धरती का श्रंगार निराला सूरज डूब चुका है‚
मेरा मन दुनिया से ऊब चुका है।
सुरभि फूल बादल विहगों के गीत नशीले‚
बीते दिन में देखे कितने स्वप्न सजीले‚
दिन भर की खुशियों के साथी चले गये यों‚
बने और बिगड़े आँखों में ताशमहल ज्यों‚
घिरा रात का जादू काला‚
राख बनीं किरणों की ज्वाला सूरज डूब चुका है‚
मेरा मन दुनिया से ऊब चुका है।
∼ अजित कुमार
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