सूर्य ढलता ही नहीं है
बिजलियां घिरती‚ हवाए काँँपती‚ रोता अंधेरा, लोग गिरते‚ टूटते हैं‚ खोजते फिरते बसेरा

सूर्य ढलता ही नहीं है – रामदरश मिश्र

Pain and desperation is the mother of creativity in literature. Nothing worthwhile is written if there in no restlessness behind it. Here is a beautiful poem by Ram Darash Mishra – Rajiv Krishna Saxena

सूर्य ढलता ही नहीं है

चाहता हूं‚ कुछ लिखूँ‚ पर कुछ निकलता ही नहीं है
दोस्त‚ भीतर आपके कोई विकलता ही नहीं है।

आप बैठे हैं अंधेरे में लदे टूटे पलों से
बंद अपने में अकेले‚ दूर सारी हलचलों से
हैं जलाए जा रहे बिन तेल का दीपक निरंतर
चिड़चिड़ा कर कह रहे– “कम्बख्त जलता ही नहीं है।”

बिजलियां घिरती‚ हवाए काँँपती‚ रोता अंधेरा
लोग गिरते‚ टूटते हैं‚ खोजते फिरते बसेरा
किंतु रह–रह कर सफर में‚ गीत गा पड़ता उजाला
यह कला का लोक‚ इसमें सूर्य ढलता ही नहीं है।

तब लिखेंगे आप जब भीतर कहीं जीवन बजेगा
दूसरों के सुख–दुखों से आपका होना सजेगा
टूट जाते एक साबुत रोशनी की खोज में जो
जानते हैं‚ जिंदगी केवल सफलता ही नहीं है।

बात छोटी या बड़ी हो‚ आँच में खुद की जली हो
दूसरों जैसी नहीं‚ आकार में निज के ढली हो
है अदब का घर‚ सियासत का नहीं बाज़ार यह तो
झूठ का सिक्का चमाचम यहां चलता ही नहीं है।

∼ रामदरश मिश्र

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प्रोफेसर राजीव सक्सेना

 

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