When life-long delusions end and we suddenly discover the truth, a heart-break invariably follows. So beautifully expressed in this poem of Harivansh Rai Bachchan! Rajiv Krishna Saxena
तब रोक न पाया मैं आँसू
जिसके पीछे पागल हो कर
मैं दौड़ा अपने जीवन भर,
जब मृगजल में परिवर्तित हो, मुझ पर मेरा अरमान हँसा!
तब रोक न पाया मैं आँसू!
जिसमें अपने प्राणों को भर
कर देना चाहा अजर–अमर,
जब विस्मृति के पीछे छिपकर, मुझ पर वह मेरा गान हँसा!
तब रोक न पाया मैं आँसू!
मेरे पूजन आराधन को,
मेरे संपूर्ण समर्पण को,
जब मेरी कमज़ोरी कहकर, मुझ पर मेरा पाषाण हँसा!
तब रोक न पाया मैं आँसू!
~ हरिवंश राय बच्चन
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