In early summer, fields are empty and dried leaves fallen from trees fly all over in warm wind. Poet presents a shabda-chitra and likens the scene to the loneliness in life. Rajiv Krishna Saxena
थकी दुपहरी
थकी दुपहरी में पीपल पर
काग बोलता शून्य स्वरों में
फूल आखिरी ये बसंत के
गिरे ग्रीष्म के ऊष्म करों में
धीवर का सूना स्वर उठता
तपी रेत के दूर तटों पर
हल्की गरम हवा रेतीली
झुक चलती सूने पेड़ों पर
अब अशोक के भी थाले में
ढेर ढेर पत्ते उड़ते हैं
ठिठका नभ डूबा है रज में
धूल भरी नंगी सड़कों पर।
वन खेतों पर है सूनापन
खालीपन निःशब्द घरों में
थकी दुपहरी में पीपल पर
काग बोलता शून्य स्वरों में
यह जीवन का एकाकीपन
गरमी के सुनसान दिनों सा
अंतहीन दोपहरी, डूबा
मन निश्चल है शुष्क वनों सा।
~ गिरिजा कुमार माथुर
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