Some times we feel so frustrated with the system that we wish for an immediate change, even if it involves crushing the present system in order to create a new one. Here is an excerpt from a famous poem by Bal Krishna Sharma Navin – Rajiv Krishna Saxena
विप्लव गान
कवि‚ कुछ ऐसी तान सुनाओ— जिससे उथल–पुथल मच जाये!
एक हिलोर इधर से आये— एक हिलोर उधर से आये;
प्राणों के लाले पड़ जाएं त्राहि–त्राहि रव नभ में छाये‚
नाश और सत्यानाशों का धुआंधार जग में छा जाये‚
बरसे आग जलद् जल जायें‚ भस्मसात् भूधर हो जायें‚
पाप–पुण्य सदसद्भावों की धूल उड़ उठे दायें–बायें‚
नभ का वक्षःस्थल फट जाये‚ तारे टूक–टूक हो जायें‚
कवि‚ कुछ ऐसी तान सुनाओ— जिससे उथल–पुथल मच जाये।
मता की छाती का अमृतमय पय काल–कूट हो जाये‚
आंखों का पानी सूखे वे शोणित की घूंटें हो जायें;
एक ओर कायरता कांपे‚ गतानुगति विगलित हो जायें;
अंधे मूढ़ विचारों की वह अचल शिला विचलित हो जाये;
और दूसरी ओर कँपा देने वाला गर्जन उठ धाये‚
अंतरिक्ष में एक उसी नाशक तर्जन की ध्वनि मंडराये;
कवि‚ कुछ ऐसी तान सुनाओ— जिससे उथल–पुथल मच जाये।
नियम और उपनियमों के ये बंधन टूक टूक हो जायें‚
विश्वम्भर की पोषक वीणा के सब तार मूक हो जायें;
शांति–दण्ड टूटे‚— उस महारुद्र का सिंहासन थर्राये‚
उसकी श्वसोच्छ्वास वाहिका विश्व प्रांगण में घहराये;
नाश! नाश! हाँ‚ महानाश की प्रलयंकारी आंख खुल जाये‚
कवि‚ कुछ ऐसी तान सुनाओ— जिससे उथल–पुथल मच जाये।
∼ बालकृष्ण शर्मा ‘नविन’
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