Dushyant Kumar’s poetry is restless and points to gross injustice and absurdities in society. Here is another example. Rajiv Krishna Saxena
वो आदमी नहीं है
वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है,
माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है।
वे कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तगू,
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है।
सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर,
झोले में उसके पास कोई संविधान है।
उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप,
वो आदमी नया है मगर सावधान है।
फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए,
हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है।
देखे हैं हमने दौर कई अब ख़बर नहीं,
पैरों तले ज़मीन है या आसमान है।
वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से,
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेज़ुबान है।
∼ दुष्यंत कुमार
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