Jayadrath Vadh is a famous Epic written by the Rashtra Kavi Maithili Sharan Gupt, and tells the story in Mahabharata of the killing of Jayadrath the Kaurava by Arjuna, the Pandava Warrior. In the excerpt given below, Abhimanyu, the 16 year old son of Arjuna is bent upon tackling a specially tricky Kaurav army formation (Chakraviyuh) that he alone can do in the absence of his father Arjuna who is pre-occupied with a battle elsewhere. When Abhimanyu tells about his resolve to his wife Uttara, she is shaken as she is apprehensive that her husband could be killed in this particular battle. She pleads with her husband not to go for this battle. Her pleading and Abhimanyu’s reply are given in the excerpt given below. Rajiv Krishna Saxena
ऊत्तरा अभिमन्यु संवाद ( जयद्रथ वध से)
“मैं यह नहीं कहती कि रिपु से जीवितेश लड़ें नहीं,
तेजस्वियों की आयु भी देखी भला जाती कहीं ?
मैं जानती हूँ नाथ! यह मैं मानती भी हूँ तथा–
उपकरण से क्या शक्ति में हा सिद्धि रहती सर्वथा॥”
“क्षत्राणियों के अर्थ भी सबसे बड़ा गौरव यही–
सज्जित करें पति–पुत्र को रण के लिए जो आप ही।
जो वीर पति के कीर्ति–पथ में विघ्न–बाधा डालतीं–
होकर सती भी वह कहाँ कर्त्तव्य अपना पालतीं ?
अपशकुन आज परन्तु मुझको हो रहे सच जानिए,
मत जाइए सम्प्रति समर में प्रर्थना यह मानिए।
जाने न दूँगी आज मैं प्रियतम तुम्हें संग्राम में,
उठती बुरी है भावनाएँ हाय! इस हृदाम में।
है आज कैसा दिन न जाने, देव–गण अनुकूल हों;
रक्षा करें प्रभु मार्ग में जो शूल हों वे फूल हों।
कुछ राज–पाट न चाहिए, पाऊँ न क्यों मैं त्रास ही;
हे उत्तरा के धन! रहो तुम उत्तरा के पास ही॥
कहती हुई यों उत्तरा के नेत्र जल से भर गये,
हिम के कणों से पूर्ण मानो हो गये पंकज नये।
निज प्राणपति के स्कन्ध पर रखकर वदन वह सुन्दरी,
करने लगी फिर प्रार्थना नाना प्रकार व्यथा–भरी॥
यों देखकर व्याकुल प्रिया को सान्त्वना देता हुआ,
उसका मनोहर पाणि–पल्लव हाथ में लेता हुआ,
करता हुआ वारण उसे दुर्भावना की भीति से,
कहने लगा अभिमन्यु यों प्यारे वचन अति प्रीति से–
“जीवनमयी, सुखदायिनी, प्राणाधिके, प्राणप्रिये!
कातर तुम्हें क्या चित्त में इस भाँति होना चाहिये ?
हो शान्त सोचो तो भला क्या योग्य है तुमको यही।
हा! हा! तुम्हारी विकलता जाती नहीं मुझसे सही॥
वीर–स्नुषा1 तुम वीर–रमणी, वीर–गर्भा हो तथा,
आश्चर्य, जो मम रण–गमन से हो तुम्हें फिर भी व्यथा!
हो जानती बातें सभी कहना हमारा व्यर्थ है,
बदला न लेना शत्रु से कैसा अधर्म अनर्थ है ?
इन कौरवों ने हा! हमें संताप कैसे हैं दिए,
सब सुन चुकी हो तुम इन्होंने पाप जैसे हैं किए!
फिर भी इन्हें मारे बिना हम लोग यदि जाते रहें,
तो सोच लो संसार भर के वीर हमसे क्या कहें ?
जिस पर हृदय का प्रेम होता सत्य और समग्र है,
उसके लिए चिन्तित तथा रहता सदा वह व्यग्र है।
होता इसी से है तुम्हारा चित्त चंचल हे प्रिये!
यह सोचकर सो अब तुम्हें शंकित न होना चाहिए—
रण में विजय पाकर प्रिये! मैं शीघ्र आऊँगा यहाँ,
चिन्तित न हो मन में, न तुमको भूल जाऊँगा वहाँ!
देखो, भला भगवान ही जब हैं हमारे पक्ष में,
जीवित रहेगा कौन फिर आकर हमारे लक्ष1 में ?”
यों धैर्य देकर उत्तरा को, हो विदा सद्भाव से!
वीराग्रणी अभिमन्यु पहुँचा सैन्य में अति चाव से।
स्वर्गीय साहस देख उसका सौ गुने उत्साह से,
भरने लगे सब सैनिकों के हृदय हर्ष–प्रवाह से॥
∼ मैथिली शरण गुप्त (राष्ट्र कवि)
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