On the auspicious occasion of the birthday of our past Prime Minister Atal Ji, I am posting excerpt from an inspiring poem written by him.
सिंधु में ज्वार
आज सिंधु में ज्वार उठा है
नगपति फिर ललकार उठा है
कुरुक्षेत्र के कण–कण से फिर
पांचजन्य हुँकार उठा है।
शत–शत आघातों को सहकर
जीवित हिंदुस्थान हमारा
जग के मस्तक पर रोली सा
शोभित हिंदुस्थान हमारा।
दुनियाँ का इतिहास पूछता
रोम कहाँ, यूनान कहाँ है
घर–घर में शुभ अग्नि जलाता
वह उन्नत ईरान कहाँ है?
दीप बुझे पश्चिमी गगन के
व्याप्त हुआ बर्बर अँधियारा
किंतु चीर कर तम की छाती
चमका हिंदुस्थान हमारा।
हमने उर का स्नेह लुटाकर
पीड़ित ईरानी पाले हैं
निज जीवन की ज्योति जला–
मानवता के दीपक बाले हैं।
जग को अमृत का घट देकर
हमने विष का पान किया था
मानवता के लिये हर्ष से
अस्थि–वज्र का दान दिया था।
जब पश्चिम ने वन–फल खाकर
छाल पहनकर लाज बचाई
तब भारत से साम गान का
स्वार्गिक स्वर था दिया सुनाई।
अज्ञानी मानव को हमने
दिव्य ज्ञान का दान दिया था
अम्बर के ललाट को चूमा
अतल सिंधु को छान लिया था।
साक्षी है इतिहास प्रकृति का
तब से अनुपम अभिनय होता
पूरब से उगता है सूरज
पश्चिम के तम में लय होता
विश्व गगन पर अगणित गौरव
के दीपक अब भी जलते हैं
कोटि–कोटि नयनों में स्वर्णिम
युग के शत–सपने पलते हैं।
~ अटल बिहारी वाजपेयी
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शायद भारत रत्न पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल जी..
विश्व गगन के वो ऐतिहासिक धरोहर रहे है..
जो हमेशा से ही सादगी औ एकाकी जीवन जीने के
साक्षात लौ जगाते रहने के स्वयम जीते जागते उदाहरण है..
शायद,
जीवन के इस कटीले राह में एक अदद
साथी- प्रेम के बिना अधूरे ही रहे..
प्रणय निवेदन ठुकराए जाने के कारण ही
शायद जीवन भर एक काबिल नेत्रित्वेकर्ता
किन्तु एक भोलेबाबा -जैसे भंगेड़ी ही रहे..
जैसे जग-भोले स्वयम से ही फक्कड़ ही रहे
अपने भक्तों को सर्वस्व पदों को देकर
एक मसानी औघड़ जैसे ही जीते रहे..
आज शायद वो जीवन की अंतिम गिनती
की इकाइयां गिन रहे है..की न जाने कब
एक अदद जीवन के अंतिम सत्य का
साक्षात्कार से एकाकार हो जाए…