We often feel infinitesimally small in this infinite universe. Here is a lovely poem of Ghanshyam Chandra Gupt Ji addressed to that all pervading infinite Brhaman that conveys the sheer awe of a human soul – Rajiv Krishna Saxena
तुम असीम
रूप तुम्हारा, गंध तुम्हारी, मेरा तो बस स्पर्श मात्र है
लक्ष्य तुम्हारा, प्राप्ति तुम्हारी, मेरा तो संघर्ष मात्र है।
तुम असीम, मैं क्षुद्र बिंदु सा, तुम चिरजीवी, मैं क्षणभंगुर
तुम अनंत हो, मैं सीमित हूँ, वट समान तुम, मैं नव अंकुर।
तुम अगाध गंभीर सिंधु हो, मैं चंचल सी नन्ही धारा
तुम में विलय कोटि दिनकर, मैं टिमटिम जलता बुझता तारा।
दृश्य तुम्हारा, दृष्टि तुम्हारी, मेरी तो तूलिका मात्र है
सृजन तुम्हारा, सृष्टि तुम्हारी, मेरी तो भूमिका मात्र है।
भृकुटि – विलास तुम्हारा करता सृजन – विलय सम्पूर्ण सृष्टि का
बन चकोर मेरा मन रहता अभिलाषी दो बूँद वृष्टि का।
मेरे लिए स्वयं से हट कर क्षणभर का चिंतन भी भारी
तुम शरणागत वतसल परहित हेतु हुए गोवर्धनधारी।
व्याकुल प्राण – रहित वंशी में तुमने फूंका मंत्र मात्र है
राग तुम्हारा, ताल तुम्हारी, मेरा तो बस यंत्र मात्र है।
~ घनश्याम चन्द्र गुप्त
लिंक्स:
- कविताएं: सम्पूर्ण तालिका
- लेख: सम्पूर्ण तालिका
- गीता-कविता: हमारे बारे में
- गीता काव्य माधुरी
- बाल गीता
- प्रोफेसर राजीव सक्सेना