This lovely poem of Udaybhanu Hans is as relevant today as it was before. Things are turning bad to worse with breaking down of morals, accentuation of corruption, terrorism, separatism and poverty. As public watches helplessly, leaders are busy fighting for their selfish ends. I especially like the last but one stanza that I have also tried to translate:
water fills the boat that tosses and rolls
mad storm in all its might unfolds
inebriated boatmen brawl over right of control!
Poet hopes that at least his pen would remain truthful in this hour of need. Rajiv Krishna Saxena
भेड़ियों के ढंग
देखिये कैसे बदलती आज दुनिया रंग
आदमी की शक्ल, सूरत, आचरण में भेड़ियों के ढंग।
द्रौपदी फिर लुट रही है दिन दहाड़े
मौन पांडव देखते है आंख फाड़े
हो गया है सत्य अंधा, न्याय बहरा, और धर्म अपंग।
नीव पर ही तो शिखर का रथ चलेगा
जड़ नहीं तो तरु भला कैसे फलेगा
देखना आकाश में कब तक उड़ेगा, डोर–हीन पतंग।
डगमगती नाव में पानी भरा है
सिरफिरा तूफान भी जिद पर अड़ा है
और मद्यप नाविकों में छिड़ गई अधिकार की है जंग।
शब्द की गंगा दुहाई दे रही है
युग–दशा भी पुनः करवट ले रही है
स्वाभिमानी लेखनी का शील कोई कर न पाए भंग।
~ उदयभानु ‘हंस’
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