दाने – केदार नाथ सिंह

दाने – केदार नाथ सिंह

This poem somewhere deeply saddens us. All parents see their children grow up and leave… get lost somewhere in the wide world… nothing can be done about it. There is a feeling of helplessness… Rajiv Krishna Saxena

दाने

नहीं
हम मंडी नहीं जाएंगे
खलिहान से उठते हुए
कहते हैं दाने

जाएँगे तो फिर लौट कर नहीं आएँगे
जाते जाते
कहते जाते हैं दाने

अगर लौट कर आए भी
तो तुम हमें पहचान नहीं पाओगे
अपनी अंतिम चिट्ठी में
लिख भेजते हैं दाने

उसके बाद महीनों तक
बस्ती में
काई चिट्ठी नहीं आती

~ केदार नाथ सिंह

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