घर की बात – प्रेम तिवारी

A joint family has lots of issues and people keep many things hidden in their hearts. At quiet times many thoughts jostle around in the mind. This lovely short poem illustrates this thought process of the “ghar ki bahu” while her husband is away. Rajiv Krishna Saxena

घर की बात

जागे – जागे सपने भागे
आँचल पर बरसात
मैं होती हूँ, तुम होते हो
सारी सारी रात।

नीम–हकीम मर गया कब का
घर आँगन बीमार
बाबू जी तो दस पैसा भी
समझे हैं दीनार
ऊब गयी हूँ
कह दूंगी मैं ऐसी–वैसी बात।

दादी ठहरीं भीत पुरानी
दिन दो दिन मेहमान
गुल्ली–डंडा खेल रहे हैं
बच्चे हैं नादान
टूटी छाजन झेल न पाएगी
अगली बरसात

हल्दी के सपने आते हैं
ननदी को दिन–रैन
हमे पता है सोलह में
मन होता है बेचैन
कोई अच्छा सा घर देखो
ले आओ बारात।

∼ प्रेम तिवारी

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