कुटी चली परदेस कमाने – शैलेंद्र सिंह

कुटी चली परदेस कमाने – शैलेंद्र सिंह

There is a huge migration of rural folks to cities. Search of jobs make people leave their homes and culture and face all kinds of ordeals in alien lands. In the process they themselves undergo irreversible changes and are lost to villages for ever. Here is a touching poem by Shalendra Singh. Rajiv Krishna Saxena

कुटी चली परदेस

कुटी चली परदेस कमाने
घर के बैल बिकाने
चमक दमक में भूल गई है
अपने ताने बाने।

राड बल्ब के आगे फीके
दीपक के उजियारे
काट रहे हैं फ़ुटपाथों पर
अपने दिन बेचारे।

कोलतार सड़कों पर चिड़िया
ढूंढ रही है दाने।

एक एक रोटी के बदले
सौ सौ धक्के खाये
किंतु सुबह के भूले पंछी
लौट नहीं घर आये।

काली तुलसी नागफनी के
बैठी है पैताने।

गोदामों के लिये बहाया
अपना खून पसीना
तन पर चमड़ी बची न बाकी
एसा भी क्या जीना।

छांव बरगदी राज नगर में
आई गांव बसाने।

~ शैलेंद्र सिंह

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