Here is another poem of Hullad Muradabadi, on finding a home to live in the era of sky rocketing prices. Rajiv Krishna Saxena
रहने को घर नहीं है
कमरा तो एक ही है
कैसे चले गुजारा
बीबी गई थी मैके
लौटी नहीं दुबारा
कहते हैं लोग मुझको
शादी-शुदा कुँआरा
रहने को घर नहीं है
सारा जहाँ हमारा।
महँगाई बढ़ रही है
मेरे सर पे चढ़ रही है
चीजों के भाव सुनकर
तबीयत बिगड़ रही है
कैसे खरीदूँ मेवे
मैं खुद हुआ छुआरा
रहने को घर नहीं है
सारा जहाँ हमारा।
शुभचिंतको मुझे तुम
नकली सुरा पिला दो
महँगाई मुफलिसी से
मुक्ति तुरत दिला दो
भूकंप जी पधारो
अपनी कला दिखाओ
भाड़े हैं जिनके ज्यादा
वह घर सभी गिराओ
इक झटका मारने में
क्या जाएगा तुम्हारा
रहने को घर नहीं है
सारा जहाँ हमारा।
जिसने भी सत्य बोला
उसको मिली ना रोटी
कपड़े उतर गए सब
उसे लग गई लँगोटी
वह ठंड से मरा है
दीवार के सहारे
ऊपर लिखे हुए थे
दो वाक्य प्यारे- प्यारे
सारे जहाँ से अच्छा
हिंन्दोसताँ हमारा
हम बुलबुले हैं इसकी
यह गुलसिताँ हमारा
रहने को घर नहीं है
सारा जहाँ हमारा।
∼ हुल्लड़ मुरादाबादी
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