A village bride is ready to leave parent’s home. A very poignant movement… Rajnarain Bisaria Ji describes the scene and her feelings beautifully and in a very moving manner. Presented are first couple of stanzas from a longer poem. Rajiv Krishna Saxena
विदा की घड़ी है
विदा की घड़ी है
कि ढप ढप ढपाढप
बहे जा रहे ढोल के स्वर पवन में,
वधू भी जतन से सजाई हुई–सी
लजाई हुई–सी,
पराई हुई–सी,
खड़ी है सदन में,
कि घूँघट छिपाए हुए चाँद को है
न जग देख पाता
मगर लाज ऐसी, कि पट ओट में भी
पलक उठ न पाते,
हृदय में जिसे कल्पना ने बसाया
नयन देखना चाहते हैं उसी को,
मगर जो सदा भृंग–सी डोलती थी
कि पट–ओट में भी
लजाकर वही दृष्टि भू पर गड़ी है,
विदा की घड़ी है।
विदा की घड़ी है,
सभी गाँव भर की
बड़ी भीड़ की भीड़ आकर जुटी है,
रुँधे कंठ मंगल–भरे गीत गाते
धड़कते हृदय धीर धीरज बँधाते,
कि गृहकाज के खुरदुरे से नरम हाथ
ढक ढक ढपक ढक्क ढोलक बजाते
सहेली सखी घेर कर बैठ जातीं
कभी हैं हँसातीं, कभी हैं रुलातीं
निकट खींच चाची, बुआ, भाभियाँ
अंक में भींच लेतीं,
नये रीति व्यौहार की
तीज–त्यौहार की सीख देतीं,
वयोवृद्ध ममता लुटी जा रही है
न कुछ बोल पाती
किसी की कुँवारी सिसकती हुई
हिचकियों के निकट
मुँह नहीं खोल पाती,
अधर पर वचन सांत्वना के उमड़ते
मगर अश्रु की बाढ़ में डूब जाते,
कि नौका किसी की,
किसी के सहारे
किसी दूसरे ही किनारे मुड़ी है,
लुटी प्राण की गाँठ की संपदा जब
तभी गाँठ जाकर किसी की जुड़ी है,
विदा की घड़ी है।
∼ राजनारायण बिसरिया
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Thanks for uploading this poem This is a very nice poem . It was my late mother’s favourite. How can I get the complete poem