अहिंसा – भारत भूषण अग्रवाल

Here is a tongue in the cheek poem that Bharat Bhushan Ji wrote during the Second World War, but is still equally relevant. We may have high and noble ideas but the daily mundane stuff somehow always manages to get the priority – Rajiv Krishna Saxena

अहिंसा

खाना खा कर कमरे में बिस्तर पर लेटा

सोच रहा था मैं मन ही मन: ‘हिटलर बेटा’

बड़ा मूर्ख है‚ जो लड़ता है तुच्छ क्षुद्र–मिट्टी के कारण

क्षणभंगुर ही तो है रे! यह सब वैभव धन।

अन्त लगेगा हाथ न कुछ दो दिन का मेला।

लिखूं एक खत‚ हो जा गांधी जी का चेला

वे तुझ को बतलाएंगे आत्मा की सत्ता

होगी प्रगट अहिंसा की तब पूर्ण महत्ता।

कुछ भी तो है नहीं धरा दुनियां के अंदर।

छत पर से पत्नी चिल्लायी : ‘दौड़ो बंदर!’

∼ भारत भूषण अग्रवाल

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