Later in married life husband and wife become real comfort zones for each other. Chores are divided and each has his / her areas well defined. At this stage if a long visit of the darling wife to her mother’s home shifts back the responsibility of the otherwise alien kitchen to the poor husband, he had simply had it! Read excerpts from a lovely poem by Rakesh Khandelwal Ji, which very effectively conveys the situation – Rajiv Krishna Saxena
मंहगा पड़ा मायके जाना
तुमने कहा चार दिन‚ लेकिन छह हफ्ते का लिखा फ़साना‚
सच कहता हूं मीत‚ तुम्हारा मंहगा पड़ा मायके जाना!
कहां कढ़ाई‚ कलछी‚ चम्मच‚ देग‚ पतीला कहां कटोरी‚
नमक‚ मिर्च‚ हल्दी‚ अजवायन‚ कहां छिपी है हींग निगोड़ी‚
कांटा‚ छुरी‚ प्लेट प्याले सब‚ सासपैेन इक ढक्कन वाला‚
कुछ भी हम को मिल न सका है‚ हर इक चीज छुपा कर छोड़ी‚
सारी कोशिश ऐसी‚ जैसे खल्लड़ से मूसल टकराना‚
सच कहता हूं मीत‚ तुम्हारा मंहगा पड़ा मायके जाना!
आटा‚ सूजी‚ मैदा‚ बेसन‚ नहीं मिले‚ ना दाल चने की‚
हमने सोचा बिना तुम्हारे‚ यहां चैन की खूब छनेगी‚
मिल न सकी है लौंग‚ न काली मिर्च‚ छौंकने को ना जीरा
सोडा दिखता नहीं कहीं भी‚ जाने कैसे दाल गलेगी‚
लगा हुआ हूं आज सुबह से‚ अब तक बना नहीं है खाना‚
सच कहता हूं मीत‚ तुम्हारा मंहगा पड़ा मायके जाना!
आज सुबह जब उठ कर आया‚ काफी‚ दूध‚ चाय सब गायब‚
ये साम्राज्य तुम्हारा‚ इसको किचन कहूं या कहूं अजायब‚
कैसे आन करूं चूल्हे को‚ कैसे मइक्रोवेव चलाऊं‚
तुम थी कल तक ताजदार‚ मैं बन कर रहा तुम्हारा नायब‚
सारी कैबिनेट उलटा दी‚ मिला नहीं चाय का छाना‚
सच कहता हूं मीत‚ तुम्हारा मंहगा पड़ा मायके जाना!
आलू‚ बैंगन‚ गोभी‚ लौकी‚ फली सेम की और ग्वार की‚
सब हो गये अजनबी‚ टेबिल पर बोतल है बस अचार की‚
कड़वा रहा करेला‚ सीजे नहीं कुंदरू‚ मूली‚ गाजर‚
दाल मूंग की जिसे उबाला‚ आतुर है घी के बघार की‚
नानी के संग आज बताऊं‚ याद आ रहे मुझको नाना‚
सच कहता हूं मीत‚ तुम्हारा मंहगा पड़ा मायके जाना!
~ राकेश खण्डेलवाल
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