It was in 1960s that I heard on Aakashvani radio, the so called “Tuktaks” written and recited by the well know poet Bharat Bhushan Agarwal. I could not locate them in print but some readers have occasionally written to me about presenting those tuktaks. I remembered four of them that are reproduced below. The fourth one has been sent by reader Akhilesh Mathur. If other readers can remember more, please send to me. Rajiv Krishna Saxena
नींद भी न आई (तुक्तक)
नींद भी न आई, गिने भी न तारे
गिनती ही भूल गए विरह के मारे
रात भर जाग कर
खूब गुणा भाग कर
ज्यों ही याद आई, डूब गए थे तारे।
यात्रियों के मना करने के बावजूद गये
चलती ट्रेन से कूद गये
पास न टिकट था
टीटी भी विकत था
बिस्तर तो रह ही गया, और रह अमरुद गये।
देश में आकाल पड़ा, अनाज हुआ महंगा
दादी जी ने गेंहू लिया बेच के लहंगा
लेने गयी चक्की
पड़ोसन थी नक्की
कहने लगी, यहाँ नहीं हैंगा।
तीन गुण विशेष हैं कागज़ के फूल में
एक तो वह कभी नहीं लगते हैं धूल में
दूजे वह खिलते नहीं
कांटे भी लगते नहीं
चाहे हम उनको लगा लें बबूल में।
∼ भारत भूषण अग्रवाल
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