Here is a funny poem about NRIs that I found on Whatsapp. I do not know who wrote it, but as I too was an NRI for a long time, the poem certainly rings a bell. Most NRIs have this feeling sometimes or the other that they are left hanging in between. Rajiv Krishna Saxena
एन आर आई कविता
न इधर के रहे
न उधर के रहे
बीच में ही हमेशा लटकते रहे
न इंडिया को भुला सके
न विदेश को अपना सके
एन आर आई बन के काम चलाते रहे
न हिंदी को छोड़ सके
न अंग्रेजी को पकड़ सके
देसी एक्सेंट में गोरों को कन्फयूज़ करते रहे
न शौटर््स पहन सके
न सलवार कमीज छोड़ सके
जींस पर कुरता पहन कर इतराते रहे
न नाश्ते में डोनट खा सके
न खिचड़ी कढ़ी को भुला सके
पिज्ज़ा पर मिर्च छिड़क कर मज़ा लेते रहे
न गरमी को भुला सके
न स्नो को अपना सके
खिड़की से सूरज को देख “ब्यूटीफुल डे” कहते रहे
अब आई बारी
इंडिया जाने की तो
हाथ में मिनरल वाटर की बोतल ले कर चलते रहे
लेकिन वहां पर
न भेलपूरी खा सके
न लस्सी पी सके
पेट के दर्द से तड़पते रहे
त्रिफला और डाईजीन से काम चलाते रहे
न मच्छर से भाग सके
न खुजली को रोक सके
क्रीम से दर्दों को छुपाते रहे
न इधर के रहे
न उधर के रहे
कंबख्त कहीं के न रहे!
Anonymous
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