Introduction:
Here is one of those poems written with golden soothing words by Dinkar Ji. It consoles, it enthuses, it exhorts, to get up and finish the last lap of the journey. Rajiv Krishna Saxena
मंजिल दूर नहीं है
वह प्रदीप जो दीख रहा है झिलमिल, दूर नहीं है
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है
चिनगारी बन गयी लहू की बूंद गिरी जो पग से,
चमक रहे, पीछे मुड़ देखो, चरण चिन्ह जगमग से।
शुरू हुई आराध्य भूमि यह, क्लांत नहीं रे राही
और नहीं तो पांव लगे हैं क्यों पड़ने डगमग से?
बाकी होश तभी तक, जब तक जलता तूर नहीं है
थककर बैठ गये क्या भाई ! मंजिल दूर नहीं है।
अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश निर्मम का।
एक खेय है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ,
वह देखो, उस पार चमकता है मंदिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिर, वह सच्चा शूर नहीं है
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।
दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही,
अंबर पर घन बन छाएगा ही उच्छवास तुम्हारा।
और अधिक ले जांच, देवता इतना क्रूर नहीं है,
थककर बैठ गये क्या भाई! मंजिल दूर नहीं है।
~ रामधारी सिंह दिनकर
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