Destruction and construction keep happening in sequence. Inherent will in nature to start rebuilding again after a disaster is over, is amazing indeed. Rajiv Krishna Saxena
नीड़ का निर्माण फिर फिर
वह उठी आँधी कि नभ में
छा गया सहसा अँधेरा,
धूल धूसर बादलों न
भूमि को इस भाँति घेरा,
रात सा दिन हो गया फिर
रात आई और काली,
लग रहा था अब न होगा
इस निशा का फिर सवेरा,
रात के उत्पात–भय से
भीत जन–जन, भीत कण–कण,
किंतु प्रची से उषा की
मोहिनी मुस्कान फिर–फिर!
नीड़ का निर्माण फिर–फिर,
नेह का आह्वान फिर–फिर!
वह चले झोंके कि काँपे
भीम कायावान भूधर,
जड़ समेत उखड़–पुखड़ कर
गिर पड़े, टूटे विपट वर,
हाय तिनकों से विनिर्मित
घोंसलों पर क्या न बीती,
डगमगाए जबकि कंकड़
ईंट, पत्थर के महल–घर,
बोल आशा के विहंगम
किस जगह पर तू छिपा था,
जो गगन पर चढ़ उठाता
गर्व से निज तान फिर–फिर,
नीड़ का निर्माण फिर–फिर,
नेह का आह्वान फिर–फिर!
क्रुद्ध नभ के वज्र दाँतों में
उषा है मुस्कुराती
घोर गर्जनमय गगन के
कंठ में खग पंक्ति गाती,
एक चिड़िया चोंच में तिनका
लिये जो जा रही है,
वह सहज में ही पवन
उंचास को नीचा दिखाती!
नाश के दुख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख,
प्रलय की निस्तब्धता से
सृष्टि का नव गान फिर–फिर!
नीड़ का निर्माण फिर–फिर,
नेह का आह्वान फिर–फिर!
~ हरिवंशराय बच्चन
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