Sometimes, things change unexpectedly and for the better that looks like a divine intervention and surprises people. Here is a poem depicting that. Rajiv Krishna Saxena
अपनापन
चिलचिलाती धूप में सावन कहाँ से आ गया
आप की आँखों में अपनापन कहाँ से आ गया।
जब वो रोया फूट कर मोती बरसने लग गये
पास एक निर्धन के इतना धन कहाँ से आ गया।
दूसरों के ऐब गिनवाने का जिसको शौक था
आज उसके हाथ में दरपन कहाँ से आ गया।
मैं कभी गुज़रा नहीं दुनियाँ तेरे बाज़ार से
मेरे बच्चों के लिये राशन कहाँ से आ गया।
पेट से घुटने सटाकर सो गया फुटपाथ पर
पूछो दीवाने को योगआसन कहाँ से आ गया।
कोई बोरा तक बिछाने को नहीं है जिसके पास
उसके कदमों में ये सिंहासन कहाँ से आ गया।
मैंने तो मत्थे को रगड़ा था तेरी दहलीज पर
मेरी पेशानी पे ये चंदन कहाँ से आ गया।
कैसे दुनियाँ को बताएँ बंद आँखों का कमाल
मूंदते ही आँख वो फौरन कहाँ से आ गया।
∼ बुद्धिसेन शर्मा
लिंक्स:
- कविताएं: सम्पूर्ण तालिका
- लेख: सम्पूर्ण तालिका
- गीता-कविता: हमारे बारे में
- गीता काव्य माधुरी
- बाल गीता
- प्रोफेसर राजीव सक्सेना