Living a life is not such an easy chore. It tires out a person. At the end of it, one gets a feeling how absurd and pointless the whole affair was, and how pointless it is to get exhausted in doing so… A very lovely poem by Girija Kumar Mathur. Look at the last three lines. It is impossible to translate the feeling of pathos these lines evoke. Art work is by Garima Saxena – Rajiv Krishna Saxena
कौन थकान हरे जीवन की?
बीत गया संगीत प्यार का‚
रूठ गई कविता भी मन की।
वंशी में अब नींद भरी है‚
स्वर पर पीत सांझ उतरी है
बुझती जाती गूंज आखिरी —
इस उदास बन पथ के ऊपर
पतझर की छाया गहरी है‚
अब सपनों में शेष रह गई
सुधियां उस चंदन के बन की।
रात हुई पंछी घर आए‚
पथ के सारे स्वर सकुचाए‚
म्लान दिया वत्ती की बेला —
थके प्रवासी की आंखों में
आंसू आ आ कर कुम्हलाए‚
कहीं बहुत ही दूर उनींदी
झांझ बज रही है पूजन की।
कौन थकान हरे जीवन की?
∼ गिरिजा कुमार माथुर
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