In this portion from the classic book “Bharat-Bharati”, Maithili Sharan Gupt Ji has described the sad plight of a farmer in Indian villages. While the poem was written a long time ago, in many ways the condition of farmers have not changed much even today. Rajiv Krishna Saxena
किसान (भारत–भारती से)
हेमन्त में बहुदा घनों से पूर्ण रहता व्योम है।
पावस निशाओं में तथा हँसता शरद का सोम है॥
हो जाये अच्छी भी फसल, पर लाभ कृषकों को कहाँ।
खाते, खवाई, बीज ऋण से हैं रंगे रक्खे जहाँ॥
आता महाजन के यहाँ वह अन्न सारा अंत में।
अधपेट खाकर फिर उन्हें है काँपना हेमंत में॥
बरसा रहा है रवि अनल, भूतल तवा सा जल रहा।
है चल रहा सन सन पवन, तन से पसीना बह रहा॥
देखो कृषक शोषित, सुखाकर हल तथापि चला रहे।
किस लोभ से इस आँच में, वे निज शरीर जला रहे॥
घनघोर वर्षा हो रही, है गगन गर्जन कर रहा।
घर से निकलने को गरज कर, वज्र वर्जन कर रहा॥
तो भी कृषक मैदान में करते निरंतर काम हैं।
किस लोभ से वे आज भी, लेते नहीं विश्राम हैं॥
बाहर निकलना मौत है, आधी अँधेरी रात है।
है शीत कैसा पड़ रहा, औ’ थरथराता गात है॥
तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते।
यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते॥
सम्प्रति कहाँ क्या हो रहा है, कुछ न उनको ज्ञान है।
है वायु कैसी चल रही, इसका न कुछ भी ध्यान है॥
मानो भुवन से भिन्न उनका, दूसरा ही लोक है।
शशि सूर्य हैं फिर भी कहीं, उनमें नहीं आलोक है॥
∼ मैथिली शरण गुप्त (राष्ट्र कवि)
लिंक्स:
- कविताएं: सम्पूर्ण तालिका
- लेख: सम्पूर्ण तालिका
- गीता-कविता: हमारे बारे में
- गीता काव्य माधुरी
- बाल गीता
- प्रोफेसर राजीव सक्सेना